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। शान्तिसुधासिन्धु )
स्यात्स्वात्मध्यानतः सिद्धिस्तपसा न च केवलम् । स्थात्मनिवासतः शान्तिन गृहवनवासतः ।। ३९२ ।। परवस्तुपरित्यागान्मुक्ति नान्न केवलम् । ज्ञात्वेति ममतां त्यक्त्वा कुर्वन्तु शर्मदं विधिम् ॥३९३॥
अर्थ- इस मंसारमें अपने आत्मासे उत्पन्न होनेवाले आनंदके अनुपमरलसेही आत्माकी तृप्ति होती है । दूध वा शर्बत आदिके पीनेसे आत्माकी तप्ति कभी नहीं होती। लोभका त्याग कर देनेसेही आत्माकी शुद्धि होती है, केवल स्नान कर लेने मात्र आत्माकी शुद्धि कभी नहीं होती। इसीलिए अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका ध्यान करने मेहो आत्माकी सिद्धि होती है, केवल तपश्चरण कर लेन मात्रसे आत्माको सिद्धि कभी नही होती। अपने आत्मामें निवास करनेमे, वा अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपमें लीन होनेसे आत्माको अनंत शांतिकी प्राप्ति होती है, घरमें वा बनमें रहने से आत्माको शांति की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। इसीलिए परपदार्थों का त्याग कर देनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, मिथ्याजानसे मोक्षकी प्राप्ति कभी नहीं होती। यही समझकर सवमे पहले ममत्वका त्याग कर देना चाहिए और कल्याण करनेवाली ध्यानादिकी विधि करना चाहिए।
भावार्थ- मूर्त पदार्थसे मूर्त पदार्थकीही तृप्ति होती है, मूर्त पदार्यमे अमर्त पदार्थकी तप्ति कभी नहीं हो सकती । दुध आदि जितने दिखनेवाले पदार्थ हैं वे मूर्त हैं, उनसे मूर्त शरीरही तृप्त हो सकता है, दुध आदि मूर्त पदार्थोंसे अमूर्त आत्मा कभी तृप्त नहीं हो सकता । यदि अमूर्त आत्माकी तृप्ति होती है, तो अमूर्त आत्माके आनन्वरससेही आत्माकी तृप्ति होती है। दूध पीनेसे थोड़ी देर बादही फिर भूख लग जाती है, परंतु आत्मजन्य आनंदरसमें तृप्त होनेपर फिर कभीभी उसकी लालसा नहीं होती। वास्तव में देखा जाय तो तप्ति इसीको कहते है। इसी प्रकार शुद्धि उसीको कहते हैं, जिससे फिर कभी अशुद्धि न हो । आत्मामें ऐमी शुद्धि लोभादिक समस्त कपायोंका त्याग कर देनेसेही होती है। स्नान करने से आत्माको यथार्थ शद्धि नहीं होती । इसीप्रकार आत्माकी सिद्धि वा ध्यानकी प्राप्ति केवल तपश्चरणसे नहीं होती, कित अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका ध्यान करनेसे होती है। जिस तपश्चरणमें आत्माले शुद्ध