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( शान्तिसुधासिन्धु )
स्वरूपका ध्यान किया जाता है उसीको तपश्चरण कहते हैं। जिस तपश्चरणमें आत्माका चितवन नहीं होता उसको तपश्चरण कभी नहीं कह सकते, और न ऐसे तपश्चरणसे आत्माकी सिद्धि होती है । इसप्रकार न तो घर में रहने से शांति प्राप्त होती है, और न बन में रहनेसे शांति प्राप्त होती है, किंतु यथार्थ शांतिकी प्राप्ति अपने आत्माके शुद्धस्वरूपम लीन होनेसे होती हैं। इसकाभी कारण यह है कि आत्माके शुद्धस्वरूपम लीन होनेसे निराकुलता प्राप्त होती है, और निराकुलताकोही शांति कहते हैं । वह निराकुलता घर वा बनमें रहनेसे कभी नहीं होती। इसी प्रकार गोरानी प्रालि सा पार्योग गर्दा लाग कर देनेसे होती है । केवल उन पदार्थों को जान लेने मात्रसे मोक्षकी प्राप्ति कभी नहीं होती । मोक्ष शब्दका अर्थ छूटना है । यह जीव अनादिकालसे कर्मोसे बंध रहा है, उन समस्त कर्मोका नाश हो जानाही मोक्ष है । इसीलिए आचार्य महाराजने परपदार्थोके परित्याग करनेसेही मोक्षकी प्राप्ति बतलाई है, उन कर्मोका स्वरूप जान लेने मात्रसे वे कर्म नाष्ट नहीं होते, किंतु ध्यानके द्वारा काँका नाश किया जाता है, इसलिए कर्माका नाश होना ही मोक्ष है। केवल उनको जान लेना मोक्ष नहीं है । यही सब समत करके प्रत्येक भव्यजीवको परपदार्थोंके ममत्वका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । और समस्त कर्मों का नाश कर आत्माका कल्याण करके-- मोक्षकी प्राप्ति कर लेनी चाहिए । यही भव्यजीवका कत्तंव्य है ।
द्रश्न - कस्य वृद्धिः कलो काले तथा हानिर्भवेद् वद ? __ अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस कलिकालमें किस-किसकी तो वृद्धि होती है। और किस-किसकी हानी होती है ? उ. काले फलो केतवता पशुत्वं निर्लज्जता दाम्भिकता व्यथादा ।
सुदुष्टता वाऽमतिता विशेषात् प्रबर्द्धते लोभकषायतापि ३९४ धर्मज्ञता स्वात्मविचारतापि कारुण्यता कोमलता नरत्वम् । सत्साधुता वीर्घविचारतापि प्रतिक्षणं नश्यति चैव नृणाम् ॥
अर्थ-- इस कलिकालमें छल-कपट, पशुपना, निलंज्जता, दुःख देनेवाले अनेक प्रकारके ढोंग, दुष्टता, निर्बुद्धिपना और विशेषकर लोभ कषायता बढती जाती है तथा धर्मज्ञता, अपने आत्माका विचार करना,