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________________ ( शान्ति सुधासिन्धु ) करुणा, कोमलता, मनष्यपना, सज्जनता और दीर्घ विचार करना आदि मनुष्यों के गुण सब नष्ट होते जाते हैं । २७३ — भावार्थं इस कलिकालमें छल-कपट बहुत बढ़ गया है, वर्तमान कालके मनुष्य कहते कुछ हैं, और करते कुछ हैं, उपरसे बहुत अच्छीअच्छी मीठी बाते बनाते हैं, अपनेही स्वार्थ में दूसरोंका उपकार दिखलाते हैं, और अन्तमें सबका गला घोंटकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं । इसीप्रकार पशुपना बढता जाता है । मनुष्योचित सदाचार छूटता जाता है और पशुओंके समान असदाचारता बढ़ती जाती है। मक्षअभक्षका कुल विचार नहीं रहा है। पशुओंके समान रात-दिन खाते रहते हैं, और चाहे जो खाते हैं। पशु तो खाने योग्य पदार्थको सूंघ लेता है । यदि वह खाने योग्य नहीं हुआ तो उसे वह छोड़ देता है । परन्तु वर्तमानके मनुष्य कुछ नहीं देखते, चाहे जहां जो कुछ मिलता है, सब खा जाते हैं। यह पशुओं से भी बढकर पशुपना है। निर्लज्जताका कुछ ठिकाना नहीं रहा है। चाहे जिस जातिकी और चाहे जिसकी स्त्रीको अपनी स्त्री बना लेते हैं, और फिर बहुरूपियोंके समान चाहे जैसा वेष बनाकर बाजार भी उस स्त्रीको साथ लिए फिरते हैं। खड़े होकर पेशाब करना आदि सब निर्लज्जताकेही साधन इक्कठे हो रहे हैं, और उन्हीं को इस कलिकालके मनुष्य अपनाते जाते हैं । इसीप्रकार इस कलिकालमें दांभिकता वा ढोंगभी खूब बढ गयें हैं। अनेक त्यागी ब्रह्मचारी अपनी लालसाएं पूर्ण करने के लिएही त्यागी ब्रह्मचारी बन गये हैं, अनेक ब्रह्मचारी पैसा कमानेके लिए ब्रह्मचारी बन गये हैं। जो रातभर भद्यमांसमय औषधियां खाते रहते हैं, वे भी ब्रह्मचारी कहलाते हैं, और विधवा-विवाह, वा घरेजाके पुरोहितभी ब्रह्मचारी कहलाते हैं। शास्त्री और विद्वान् कहलानेवालेभी शास्त्रोंका विपरीत अर्थ लगाकर अपना स्वार्थं सिद्ध कर रहे हैं, जैनी कहलाकर भी जिनवाणीका खंडन कर रहे हैं। कहांतक कहा जाय ? दांभिकता और दुष्टता बहुत बढ़ गई है । वर्तमान में दुष्ट लोग अपनी दुष्टता के कारण अपना आतंक जमा लेते हैं, और शिष्ट लोग किसी एकांत में पडे-पडे सडते रहते हैं। लोभ, कषाय और निर्बुद्धता इतनी बढ़ गई है कि, जिसका कुछ ठिकाना नहीं हैं । लोभ, कषायकें वशीभूत होकर लोग चाहे जैसा हिंसामय व्यापार कर
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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