________________
२७४
(शान्तिसुधा सिन्धु )
लेते हैं । न कुछ विचार रहा है, और न संतोष रहा है। जहां देखो वहां दुर्गुणही बढते जाते हैं। लोग धर्मकार्यों को छोडते जा रहे हैं, परंतु वे अपने उन लोगोंको ठीकही समझते हैं, और धर्मकार्योंको ढोंग बतलाते हैं, मेरा मात्मा कैसा है, उसका स्वरूप क्या है, उसके सांसारिक दुःख कैसे दूर हो सकते हैं, कल्याण होता है। इत्यादि विचार सर्वथा नष्ट हो गये हैं । इन्हीं सब विचारोंके नष्ट होनेसे करुणा और कोमलताभी नष्ट हो गई है, और मनुष्यपना तथा सज्जनता भी नष्ट हो गई है. मैं जो यह काम करता हूं इसका क्या फल होगा, अच्छा फल होगा या बुरा फल होगा, इससे मुझे सुख मिलेगा वा दुःख मिलेंगा इस प्रकारका विचार सर्वथा नष्ट होता है । कोईभी अयोग्य वा स्वार्थी मनुष्य जो कुछ कह देता है, उसी कामको बिना कुछ सोने विचारे करने लग जाते हैं । इसीप्रकार सब लोग दुःखी हो रहे हैं । परस्पर वात्सल्यभाव नष्ट हो गया है और लोगोंके हृदय में स्वार्थ और दुर्भावनाओंने घर कर लिया है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको अपने आत्माका हिताहित देखकर धर्मानुकूल काम करना चाहिए, कलिकालकी वायुमें नहीं बह जाना चाहिए । वायुमे बह जाना मच्छर वा पतंगों का काम है, मनुष्यों का काम नहीं है ।
स्यात्केन हेतुना सिद्धिः स्वात्मनो वद मे गुरो ?
प्रश्न
अर्थ -- हे स्वामिन् ! अब कृपा कर मेरे लिए यह बतलाइए कि अपने आत्माकी सिद्धि किन-किन कारणोंसे होती है ? उत्तर - वांच्छादिनाशतो नृणा वनितासंगत्यागतः । गृहसंसर्गदूराद्वा सन्तोशर्धर्यतो ध्रुवम् ।। ३९६ ॥ रागद्वेषविनाशाद्धि सर्वसंकल्पनाशतः । हेयोपादेयबोधात्स्यात्सिद्धिः स्वानन्ददशिनी ॥ ३१७ ॥ ज्ञात्येति तत्त्वतस्तत्त्वं पूर्वोक्तधर्मसिद्धये ।
यतन्तां यत्नतो भव्याः संसारबंधभेदिनः ॥ ३९८ ॥
m
अर्थ - इस संसार में मनुष्यों को अपने आत्माकी सिद्धि, वांछा, इच्छा या लालसाओं का नाश कर देनेसे होती है, स्त्रीसमागमका त्याग कर देने से होता है, घरका, सबका संबंध छोड देने से आत्माकी सिद्धि होती है ।