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________________ २८८ ( मान्तिसुधासिन्धु ) दुःख देनेवाले वा सुख देनेवाले पदार्थका निरूपण किया है, तथा मनुष्योंके कर्तव्य बतलाए हैं। इनमेंसे जिसको जो अच्छा लगे, जिससे आत्मकल्याण हो वही काम सदाकाल करते रहना चाहिए। इति श्रीआचार्यवर्य श्रीकुन्थुसागरविरचिते शांतिसिंधुग्रंथ हेयोपादेय स्वरूपवर्णनो नाम चतुर्थोऽध्यायः इस प्रकार आचार्यययं श्रीकुन्थुसागरविरचित श्रीशान्तिसिंधु नामके महाग्रंथकी 'धर्मरत्न' पं. लालाराम शास्त्रीकृत हिंदी भाषाटीकामें हेयोपादेयके स्वरूपका वर्णन करनेवाला यह चौथा अध्याय समाप्त हुआ। पांचवां अध्याय ! - शांतिका उपदेश - शांतिप्रदं भ्रान्तिहरं च नत्वा श्रीशांतिनाथं क्रियतेऽथ शान्त्य । श्रीसूरिणा शान्त्युपदेश एव श्रीकुंथुनाम्नात्मरतेन नृभ्यः।४१६॥ अर्थ- संसारके समस्त जीवोंको शांति प्रदान करनेवाले और अशांतिको हरण करनेवाले ऐसे भगवान शांतिनाथको नमस्कार करके संसारभरमें शांति प्राप्त होने की कामनासे अपने आत्मामें लीन रहनेवाले आचार्यवर्य श्रीकुंयुसागर महाराज मनुष्योंके लिए शांतिका उपदेश देश देते हैं। प्रश्न – किमर्थं क्रियते स्वामिन् वद दानार्चनादिकम् ? अर्थ- स्वामिन् ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि इस संसारमें पात्रदान वा जिनपूजन आदि धार्मिक कार्य किसलिए किए जाते हैं ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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