________________
( शान्तिसुधासिन्धु )
२८५
रत्नत्रय स्वरूप आत्माके सिवाय जितने क्रोध, मान, माया, लोभ काम, मद, मत्सर, मोह, राग, द्वेष आदि विकार हैं, वे सब नष्ट हो जाते हैं, तथा शरीर नष्ट हो जाता है, इसके सिवाय संसारके समस्त अन्य पदार्थ इस संसारमेंही रह जाते हैं। शुद्ध आत्माकेसाथ कोई नहीं रहता, इसलिए रत्नत्रय स्वरूप आत्माही उपादेय है, और शेष चैतन्य स्वरूप वा अचेतन जितने पदार्थ हैं, वे सब हेय वा त्याग करने योग्य है, यही समझकर प्रत्यक आत्माको अपनं आत्माम रत्नत्रय प्रगट करनेका उपाय करना चाहिए, सबसे पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिए, फिर सम्यग्ज्ञानकी वृद्धि करना चाहिए, और राग, द्वेष, मोह आदि समस्त विकारोंका त्याग कर पूर्ण सम्यनचारित्र धारण करना चाहिए । इसप्रकार सम्यकचारित्रकी वृद्धि करते-करते जब पूर्ण चारित्र हो जाता है, उसी प्रकार इस आत्माको मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है, उस समय यह आत्मा समस्त कर्मोसे रहित होकर अत्यंत शुद्ध हो जाता है, तथा ऐसा शुद्ध आत्माही उपादेय कहलाता है। ऐसे रत्नत्रयस्वरूप आत्माके सिवाय अन्य जितने भी पदार्थ है, सम हेय वा त्याग करने योग्य हैं, क्योंकि मुक्तावस्थामें बेसब आत्मासे भिन्न हो जाते हैं. इसलिए एंसे शुद्ध आत्माकी प्राप्तिके लिएही प्रयत्न करना चाहिए, अन्य सरको छोड देनेका प्रयत्न करना चाहिए, यही संसारमें सार है, और बाकी सब असार हैं।
आगे ग्रंथकर्ता आचार्य इन हेयोपादेयके स्वरूपको कहनेवाले इस अध्यायके निरूपण करनेका अभिप्राय बतलाते हैं।
एवमाचार्यवर्येण धीमता कुंथुसिंधुना । नृणां चातुर्यवृद्ध च स्वपरसिद्धये तथा ॥ ४१४ ॥ यथावत्सुखदं प्रोक्तं हेयोपादेवलक्षणम् ।
युष्मभ्यं रोचते यद् यत् कुरुत तद्धि तत्सदा ॥ ४१५ ॥ अर्थ-इस प्रकार महविद्वान् आचार्यवर्य श्रीकुन्थुसागरने मनुष्योंका चातुर्य बढाने के लिए, अपने आत्मकल्याण करनेके लिए, और अन्य जीवोंका कल्याण करने के लिए यह सुख देनेवाला, और यथार्थ स्वरूपको कहनेवाला, हेयोपादेय तत्त्वका निरूपण करनेवाला यह चौथा अध्याय निरूपण किया है, इस अध्याय में सब हेयोपादेय तत्वोंका स्वरूप बतलाया है,