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( गान्निगुधासिन्धु)
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जीव अपने आत्माका हित कर लेता है । वह अन्य जीवोंका हित कर सकता है, बा नहीं ? उत्तर - द्वषश्च रागः खलु येन दग्ध
स्तेन ध्रुवं स्वात्महितः कृतः को । उषद्यभावाच्च तथा परेषां हितः कृतः स्वात्मपदे ध्रुतास्ते ।। १७४ ॥ द्वेषश्च बुद्ध्वेति विहाय राग तथान्यचिन्तां कुटिलां प्रवृत्तिम् । कार्यस्त्वया स्वात्महितः प्रयत्नात् यती ध्रुवं स्यात्स्वपरात्मासिद्धिः ।। १७५ ।।
अर्थ- जो पुरुष अपने रागद्वेषको नष्ट कर देता है, वही पुरुष इस संसार में अपने आत्माका हित कर लेता है, तथा जो पुरुष इस प्रकार अपने आत्माका हित कर लेता है, उसके द्वेषका सर्वथा अभाव होनेसे वह दूसरोंका अहित कभी नहीं कर सकता, किंतु दूसरोंका हित ही करता है, और उनको अपने आत्माके यथार्थ स्वरूप में धारण करनेका प्रयल करता है । यही समझकर, हे वत्स ! तुझे भी रागढषका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, अपनी कुटिल प्रवृत्तियोंका त्याग कर देना चाहिए, और अन्य सब प्रकारकी चिन्ताओंका त्याग कर देना चाहिए । इन सबका त्याग कर तुझे प्रयत्नपूर्वक अपने आत्माका हित कर लेना चाहिए, जीससे कि अपने आत्माकी भी सिद्धि हो जाय और अन्य जीवोंको भी अपने शुद्ध आत्माकी प्राप्ति हो जाय ।
भावार्थ- जैन--सिद्धांतका यह आदेश है, कि " आदहिदं कादब्वं जं सक्कइ तं परहिदं च कादव्वं । आदहिदपरहिदादो आदहिदं सुटुं कादब्वं ।। " अर्थात्-सबसे पहले अपने आत्माका हित करना चाहिए । यदि आत्माका हित करते हुए पर आत्माका हित कर सकता हो तो अवश्य करना चाहिए । परंतु जहांपर आत्माका हित और परआत्माका हित दोनों एक साथ आ पडें तो सबसे पहले आत्माका हित कर लेना चाहिए । इसका अभिप्राय यह है, कि-यहांपर आत्महितका अर्थ राग द्वेषका त्याग करना है । जो पुरुष राग द्वेषका त्याग कर देता है,