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{ शान्तिसुधासिन्धु )
धनं च राज्यं सचिवाश्च सन्यः पुनश्च लब्धः सुपितापि माता ॥ १७२ ॥ पुनश्च लब्ध्वा भगिनी च भार्या पुनश्च देवादिचतुर्गतिः को। न किंतु लब्धं स्वपदं पवित्रं ततः प्रयत्नाद्धि तदेव लभ्यम् ॥ १७३ ॥
अर्थ- इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए इस जीवने बार-बार मित्र प्राप्त किए, बार-बार पुत्र प्राप्त किए. बार-बार पौत्र प्राप्त किए, बार-बार धन प्राप्त किया, बार-बार राज्य प्राप्त किया. बार बार मंत्रीपद प्राप्त किए, बार-बार सेना प्राप्त की, बार-बार पिता प्राप्त किए, बार-बार माताएं प्राप्त की, बार-बार बहिनें प्राप्त की, बार-बार स्त्रियाएँ प्राप्त की, परंतु अत्यंत पवित्र ऐसा आत्माका शुद्धस्वरूप आज तक प्राप्त नहीं किया। इसलिए अब प्रयत्न कर, वहीं आत्माका शुद्धस्वरूप प्राप्त कर लेना चाहिए ।। भावार्थ- इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए इस जीवको अनंतकाल व्यतीत हो गया और इस अनंतकालमें संसारकी समस्त विभूति अन्तबार प्राप्त की । पुत्र, पौत्र, स्त्री, बहिन, भाई, माता, पिता, धन, राज्य, सेना मादि, कोई ऐसा पदार्थ नहीं है, जो अनंत बार प्राप्त न हुआ हो । यदि प्राप्त नहीं हुआ है । तो आत्माका शुद्ध स्वरूप प्राप्त नहीं हुआ है, इस जीवको इस संसारमें यदि कोई सुख देनेवाला है, तो आत्माका शुद्ध स्वरूप ही है । शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लेनेसे ही आत्माको अनंत सुखकी प्राप्ति होती है। इसलिए भव्य' जीवोंको अब इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए । पुत्र-पौत्रादिक जो अनंतबार प्राप्त हुए हैं, उनका त्याग कर देनेसे तथा अनादिकालसे आत्माके साथ लगे हुए क्रोधादिक कषायोंका त्याग कर देनेसे ही आत्माका शुद्धस्वरूप प्राप्त होता है। इसलिए इन सब परिग्रहोंका त्याग कर, आत्माका शुद्धस्वरूप प्राप्त कर लेना प्रत्येक भव्य जीवका कर्तव्य है ।
प्रश्न- कृतः स्वात्महितो येन तेन परहितो न था ? अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलानेकी कृपा कीजिए कि जो