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( शान्तिमधामिन्ध ।
अर्थ- जहांपर मोह वा क्रोधादिक कषायोंका समूह रहता है, वहाँपर दुष्ट और भयंकर विधर्म रहता है, तथा जहांपर मोह वा क्रोधादिक कमाय नहीं रहते, वहांपर चिदानन्द स्वरूप म्वधर्म विद्यमान रहता है।
भावार्थ- मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पंवेद, नपुंसक वेद, यं सत्र आत्माके विकार कहलाते हैं । ये सब विकार रागादिविशिष्ट अशुद्ध आत्मामें कर्मोके उदयमे होते हैं । कर्मोंके उदयसे होनेके कारण ये सब विकार पर वा पौद्गलिक कहलाते हैं, तथा पोद्गलिक होनेके कारण ही विनम वा अधर्म कहलाते हैं। ये सब विकार अत्यन्त तीव्र, अशुद्ध काँका बंध करनेवाले हैं. और इसीलिये इस जीवको नरकादिकके घोर दुःख देनेवाले है । यही कारण है, कि ये विकार अधर्म वा विधर्म कहलाते हैं, और इन्हींको दुष्ट वा भयंकर कहते हैं। यं विकार ही आत्माको संसारसागरमें वोनेवाले हैं । और मोक्षसुखसे वंचित रखनेवाले हैं, इसलिए भव्य-जीवोंको सबसे पहले इनका त्याग करना चाहिये । इनका त्याग कर देनेसे ही आनन्दमय स्वधर्मकी प्राप्ति हो जाती है । इसका भी कारण यह है, कि जब यह आत्मा अपने विकारोंका सर्वथा त्याग कर देता है, तब यह आत्मा अत्यन्त निर्मल हो जाता है, तथा निर्मल हो जानेके कारण इसका निजस्वभाव प्रगट हो जाता है, और निजस्वभाव ही स्वधर्म कहलाता है। यह स्वधर्म वा आत्माकी निर्मलता मोक्षका कारण है, और आत्माके अनन्त सुखको प्रगट करनेवाला है । इसलिए भव्य-जीवोंको विकारोंका सर्वथा त्यागकर इस आत्माकी निर्मलता वा रत्नत्रयरूप स्वधर्मको ही ग्रहण करना चाहिए।
प्रश्न- पुनःपुनर्मया कि-कि लब्धं स्वामिन् नवा वद ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए मैने बार-बार क्या क्या प्राप्त किया है. और क्या प्राप्त नहीं किया है ? उत्तर - पुनश्च लब्धं सुसखापि बंधुः,
पुत्रश्च पौत्रोपि पुनश्च लब्धः ।