SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( शान्तिसुधा सिन्धु ) ब्रह्मा तिलोत्तमाके वशीभूत हो गया था। इसलिए वह विषयाभिलाषासे दूर नहीं हो सकता । इतके सिवाय अन्य काली भैरों बादि देव भी मद्य मांस आदि निषिद्ध और घृणित पदार्थोको सेवन करनेवाले कहे जाते हैं। इन सब देवोंके पास विषयोंकी अभिलाषा, राग, द्वेष आदि आत्माके सब विकार उपस्थित है। यदि कोई सेवक इनकी सेवा करता है वा आराधना उपासना करता है तो वे देव उस सेवकको सिवाय विषयोंकी अभिलाषाके, और राग द्वेषके और कुछ नहीं दे सकते, क्योंकि जिसके पास जो होता है वह वही दे सकता है । जिसके पास धन है वह धन दे सकता है, और जिसके पास विद्या है वह विद्या दे सकता है। जिसके पास धन नहीं है बड़ धन कहांसे दे सकता है. जिसके पास विद्या नहीं है वह विद्या या ज्ञान कहांसे दे सकता है ? कभी नहीं दे सकता | इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णू, महादेव आदि देव अपने सेवकोंको राग, द्वेष वा विषयोंकी अभिलाषा ही दे सकते हैं। यदि उनसे आत्माका निर्विकार, निर्दोष आत्माका शुद्ध स्वरूप मांगा जाय तो वह कैसे और कहांसे दे सकते हैं ? क्योंकि वह उनके पास है ही नहीं । वह आत्माका निर्दोष शुद्ध स्वरूप तो भगवान जिनेन्द्र देवके पास है, इसलिए आत्माका शुद्धस्वरूपं भगवान जिनेन्द्र देव ही दे सकते हैं । आत्मा के शुद्धस्वरूपको • भगवान जिनेन्द्र देवके सिवाय अन्य कोई देव नहीं दे सकता । इसीलिए जो भव्य जीव अपने आत्माका कल्याण करना चाहते हैं और रागद्वेष आदि विकारोंका त्यागकर मोक्ष प्राप्तकर लेना चाहते हैं वे भव्य जीव अन्य रागी द्वेषी समस्त देवोंको छोड़कर वीतराग सर्वज्ञ और सर्वथा निर्दोष ऐसे भगवान जिनेन्द्रदेवकी ही उपासना करते हैं ऐसे भव्यजीव अन्य किसी देवकी उपासना कभी नहीं कर सकते। जो जीव रागी द्वेषी हैं और अपने राग द्वेष वा विषयोंको बढाना चाहते हैं ऐसे दीर्घंसंसारी जीव ही अन्य रागी द्वेषी वा विषयाभिलाषी देवोंकी उपासना करते हैं इसलिए प्रत्येक भव्य जीवको आपना आत्माकल्याण करने के लिए भगवान जिनेन्द्रदेवकी ही उपासना करनी चाहिए । ५८ प्रश्न - त्यक्त्वान्नशास्त्रं च जिनेन्द्रशास्त्र किं पठ्यते मे कयय प्रभो ? अर्थ- हे स्वामित्! अब कृपाकर यह बतलाइये कि भव्य जीव C
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy