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________________ २८२ ( शान्तिसुधासिन्धु ) अतएव सबसे पहले धर्म-अधर्मका स्वरूप जानना चाहिए। फिर अपने आत्मको सिद्ध करने के लिए यथार्थ धर्मकोही ग्रहण करना चाहिए । यथार्थ धर्म धारण करनेसेही यह जीव संसारके दुःखोंसे छूट सकता है, अन्यथा जिस प्रकार अनादिकालसे इस संसारमें परिभ्रमण करता आया है, उसी प्रकार अनंतकालतक इसी संसारमें परिभ्रमण करता रहेगा, और महादुःख भोगता रहेगा। प्रश्न- कलौ काले नरा कीदृग्भवन्ति वद मे प्रभो ? अर्थ- हे भगवन् ! अब मेरे लिए यह बतलानेकी कृपा किजिए कि इस कलिकालमें मनुष्य कैसे होते हैं ? उत्तर - प्रायः काले कलौ जोवाः नृरूपं धारयन्त्यपि । कुर्वन्ति पशुवत्कार्य त्यक्त्या लज्जाभयादिकम् ॥ ४०६।। ततो मूढा भवाब्धौ ते निश्चयेन पतन्त्यधः । मतिः स्याद् यादृशी येषां तेषां स्यात्तादृशी गतिः ॥ अस्याः रीतेः प्रसिद्धाया विशेषो न मयोच्यते । ज्ञात्वेति स्वमतिः शुद्धा कार्या स्याच्छर्मदा गतिः ४०९ अर्थ- इस कलिकालमें बहुतो जीव मनुष्यपर्याय धारण करकेभी लज्जा और-भय आदिका त्याग कर प्रायःपशुओंके समान कार्य किया करते है, इसलिए वे अज्ञानी जीव इस संसाररूपी महासागरमें परिभ्रमण करनेके लिए अवश्यही नरक-निगोद आदि नीची गतियोंमें पडते है । सो ठिकही है, संसारमें यह रीती प्रसिद्ध है, की जिन जीवोंकी जैसी बुद्धि होती हैं, वैसीही गति होती है । इसीलिए हमने यहांपर इसका विशेष वर्णन नहीं किया है। यही समझकर भव्यजीवोंको अपनी बुद्धि शुद्ध कर लेनी चाहिए, जिससे कि आत्मकल्याण करनेवाली शुभगति प्राप्त हो। भावार्थ- इस संसारमें जो जैसा करता है, वह वसाही फल पाता है । जो मनुष्यों जैसा कार्य करता है, वह मनुष्यों सा फल पाता हैं, और जो पशओंके समान काम करता है, वह पशुओंजैसा फल पाता है। मनुष्यपर्याय पा करके पापोंका त्याग कर, आत्मकल्याण कर लेना मनुष्योचित कार्य है, तथा मनुष्यपर्याय पा करके पाप कार्योमेंही लगे
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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