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( शान्तिसुधासिन्धु )
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अर्थ- जो अज्ञानी लोग धर्म-अधर्मका स्वरूप तो जानते नहीं और पदार्थीका यथार्थ लक्षण जानते नहीं, केवल अपने-अपने धर्म के प्रचारके लिएही प्रयत्न किया करते है। अतएव इसी महादोषके कारण वे लोग इस संसाररुपी महा सागरमें जबतक सूर्य तारा और चन्द्रमा विद्यमान रहते हैं तबतक परिभ्रमण किया करते हैं । इसलिए भव्यजीवोंको सबसे पहले धर्म-अधर्मका स्वरूप जानना चाहिए, और फिर जो यथार्थ धर्म हो, उसको अपने आत्माका कल्याण करनेके लिए धारण करना चाहिए।
भावार्थ- इस संसारमें बहतसे लोग ऐसे हैं, जो न तो धर्मका म्वरूप समझते है,न अधर्मका स्वरूप समझते हैं, और न जीच वा अजीव आदिके यथार्थ नरूपकोही समयते नोभी ने अपने-अपने धर्मका प्रचार करनेके लिए प्रयत्न करते हैं। संसारमें अनेक धर्म है, कितनेही धर्म मांसभक्षणको उचित समझते हैं, कितनेही धर्म मद्यपानको उचित समझने है, कितनेही धर्म मधुसेवनकोभी उचित बतलाते है, कितनेही धर्म पशुओंकी बलि देना उचित बतलाते हैं, कितनेही धर्म पशुओंका होम करना ठीक समझते हैं, कितनेही धर्म मूर्तिपूजाका निषेध करते हैं, कितनेही धर्म रात्रिभोजनको ठीक समझते हैं, कितनेही धर्म पदाथोंको सर्वथा नित्य मानते हैं, कितनेही धर्म पदार्थोंको सर्वथा अनित्य मानते हैं, कितनेही इस समस्त संसारका कारणभूत एक अमूर्त ईश्वरकोही मानते हैं, पंचभूतको संसारका कारण मानते हैं. कोई धर्म विज्ञानकोही संसारका कारण मानता है, कोई इस संसारको मिथ्या समझता है, कोई धर्म ज्ञानादिक गणोंके अभाव होनेको मोक्षकी प्राप्ति मानता है, और कोई धर्म मरने के बादही मोक्षकी प्राप्ति मान लेता है कहां तक कहां जाय इस संसार में अनेक धर्म हैं, और वे सब परस्पर विरुद्ध हैं, यह निश्चित सिद्धांत है कि परस्पर विरुद्धता धारण करनेवाले अनेक धर्मोमें कोई एकही धर्म यथार्थ धर्म हो सकता है। सब धर्म यथार्थधर्म नहीं हो सकते, परंतु सब धर्मवाले अपने-अपने धर्मका प्रचार करते हैं, यह केवल उनकी अज्ञानता है । यदि उन्हे धर्म-अधर्मकी पहिचान होती, तो वे अवश्यही यथार्थ धर्मको ग्रहणकर उसीका प्रचार करते, परंतु वे अजानी है, उन्हे, आत्मा ज्ञान नहीं है इसीलिए इस संसारमें सदाकाल परिभ्रमण किया करते है,