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________________ ( मान्तिसुधासिन्धु ) जारस्त्रियः शीलवती च शत्रुः दुष्टस्य शत्रु सुजनश्च तिर्यक् स्वर्गस्थ मोक्षो नरकस्य शत्रुः पूर्वोक्तरीतिश्च निसर्गतोस्ति ___ अर्थ- इस संसारमें मूर्ख मनुष्योंका प्रबल शत्रु विद्वान् होता है, कृपण मनुष्योंका शत्रु भिक्षुक होता है, चोरोंका शत्रु राजा होता है. अधर्मका शत्रु आत्माका स्वभाव होता है, व्यभिचारिणी स्त्रियों की शत्रु शीलवती स्त्रियां होती हैं, दुष्टोंका शत्रु सज्जन होता है, स्वर्गका शत्रु तिर्यंच है, और नरकका शत्रु मोक्ष है । ये सव परस्पर एक दूसरेके स्वाभाविक शत्रु होते हैं। भावार्थ- इस संसारमें बहनसी शत्रता तो किसी कर्तव्यसे बन जाती है, जैसे कोई पुरुष अपने स्वार्थके लिए किसीका धन दवा लेना चाहता है, तो उस अवस्थामें वह धनी वा उस भूमिका स्वामी उस स्वार्थीका शत्रु बन जाता है । यह कृत्रिम है । यदि वह स्वार्थी उस धनीका धन न दबाता वा भूमि न दबाता, तो उस स्वामीको उसके साथ मात्रुता करने की कोई आवश्यकता नहीं होती । प्रायः देखा जाता है, कि परस्परके मित्र भी वा भाईभी. वा पिता-पुत्र भी अपने अपने स्वार्थके कारण परस्पर शत्रु बन जाते हैं. परंतु यह सब शत्रुता किसी विशेष कारणसे बन जाती है। स्वाभाविक नहीं है। जिस प्रकार स्वाभाविक शत्रता चहे-बिल्लीकी होती है, वा भेड-भेडियोंकी होती है, उसी प्रकार मूर्ख और विद्वान्की स्वाभाविक शत्रुता होती है । मुर्ख पुरुष अज्ञानी होने के कारण ठीक मार्गसे नही चल सकता, परंतु विद्वान् पुरुष ठीक मार्गको ढूंढ निकालता है, और फिर उसीके अनुसार चलता है । यही उन दोनोंको शत्रुताका कारण हैं। भिक्षुक पेटके लिए कुछ मांगना चाहता है और कृपण पुरुष एक कौडीभी देना नहीं चाहता, बस यहीं दोनोंकी शत्रुताका कारण होता है । चोर चोरी करके प्रजाको दुःखी करना चाहता है, और राजा प्रजाका दुःख सहन नहीं कर सकता, इसलिए वह चोरको पकडकर उसे दंड देता है । यही उन दोनोंकी शत्रुताका कारण है । संसारमें जितने पाप है, वे सब अधर्मसे होते हैं, तथा आत्माके स्वभावसे समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, इसलिए धर्म और अधर्मकी शत्रता है 1 व्यभिचारिणी स्त्रियां अधर्म करती हैं, और शीलवती स्त्रियां अपने पतिव्रत धर्मपर दव रहती हैं, इसी धर्म-अधर्मके
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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