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(शान्ति सुधासिन्धु )
कारण उन दोनोंमें शत्रुता बनी रहती है। दुष्ट पुरुष सदाकाल अपनी दुष्टता करता रहता है, और सज्जन पुरुष अपनी सज्जनताको सदाकाल स्थिर रखते हैं । इस दुष्टता और सज्जनताके कारणही दोनों में शत्रुता बनी रहती है । स्वर्ग में सुखही सुख है, तिर्यच योनि में दुःखही दुःख है । स्वर्गका कारण पुण्यकार्य हैं, और तिर्यच योनिका कारण पापकार्य है । यही इन दोनोंकी परस्पर विरुद्धताका कारण है । नरककी प्राप्ति तीव्र पापकर्मो से होती हैं, और मोक्षकी प्राप्ति समस्त कर्मोक नाश होने से होती है । इसीलिए दोनोंमें तीव्र विरोध है । इस प्रकार इनमें जो विरोध वा शत्रुता है, वह सकारण है, और फिरभी स्वाभाविक है । यही समझकर मूर्खता कृपणता आदि दोषोंका त्याग कर देना चाहिए, और विद्वत्ता, उदारता, सज्जनता आदि श्रेष्ठ गुणों को धारण करना चाहिए । यही भव्यजीवोंका कर्तव्य है ।
प्रश्न- कस्य स्यात्कीदृशी शोभा कल्याणाय गुरो वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब मेरे कल्याण के लिए कृपाकर यह बतलाइए कि किस-किसको शोभा किस किससे होती है । उत्तर (निर्गता धनाढ्यस्य नीतीभूपस्य भूषणम् ।
कुलस्य नम्रता शोभा विदुषामृजुता मता ॥ ३३९ ॥ धनस्य भूषणं दानं साधोः शांतिश्च भूषणम् । अंधस्य भूषणं विद्या क्षमा वीरस्य भूषणम् ॥ ३४० ॥ भूषणं तपसोऽवांच्छाहसा धर्मस्य भूषणम् । सम्यक्त्यभूषणं जन्तोर्ज्ञानं सम्यक्त्वभूषणम् ।। ३४१ ।। ज्ञानस्य भूषण वृत्तं मोक्षो वृत्तस्य भूषणम् 11 यतन्तां तत्त्वतो ज्ञात्या पूर्वोक्तधर्मसिद्धये ॥ ३४२ ॥
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अर्थ - धनाढयकी शोभा अभिमान न करना है, राजाकी शोधा नीतिसे राज्य पालन करना है, कुलकी शोभा नम्रता है, विद्वानोंकी शोभा सरलता है, धनकी शोभा दान देना है, साधूकी शोभा शांति है, अन्धेकी शोभा विद्या है, शूर-वीरको शोभा क्षमा धारण करना है, तपश्चरणकी शोभा किसी प्रकारकी इच्छा न करना है, धर्मको शोभा