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( शान्तिसुधा सिन्धु }
अहिंसा है, जीवोंकी शोभा सम्यक्ज्ञान प्राप्त करना है, सम्यग्दर्शनकी शोभा सम्यग्ज्ञान है, सम्यग्ज्ञानकी शोभा सम्यक् चारित्र है, और सम्यक् चारित्रकी शोभा मोक्ष की प्राप्ति है । यह सब समझकर भव्य पुरुषोंको अपनी शोभा बनाने के लिए ऊपर लिखे धर्मोंको धारण करनेका प्रयत्न करना चाहिए । भावार्थ - धन प्राप्त होनेपर अभिमान आ ही जाता है । परन्तु वह अभिमान्य लोगोंको दृष्टिमा कहता है तथा बहुत से लोग उस अभिमानको गिराने के लिए उस धनीको नीचा दिखानेका प्रयत्न करते रहते है, जिससे उसका सब अभिमान चूर-चूर हो जाता है । यही समझकर प्रत्येक धनी पुरुषको अपने अभिमानका त्याग कर देना चाहिए | धन पा करके अभिमान न करना ही उस धनकी शोभा है । इसीप्रकार नीति और न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करना राजाकी शोभा है, जो राजा नीति पूर्वक वा न्याय पूर्वक प्रजाका पालन नहीं करता, वह बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है। अन्याय और अनीतिके कारण उसकी प्रजा, उससे असंतुष्ट हो जाती है, और उपद्रव मचाकर उसे राज्यसिहासनसे उतार देती है । अथवा प्रजाको राजाका विरोधी समझ कर कोई शत्रू राजा उसको घेर लेता है, और युद्ध में उसको मारकर वा पकडकर उस राज्यपर अपना अधिकार जमा लेता है । यही समझ कर प्रत्येक राजाको न्याय और नीतिसेही राज्यका पालन करते रहना चाहिए। इसी में राजाकी शोभा है। कुलकी शोभा नम्रता है, जो पुरुष उत्तम कुलमें उत्पन्न होता हैं, वह नम्रही होता है । जिस प्रकार फल लगनेपर वृक्ष नम्र हो जाते हैं, उसीप्रकार उत्तम कुलके मनुष्य सदा नम्री बने रहते हैं । इसीप्रकार विद्वानोंकी शोभा सरलतासे है । जो विद्वान् विद्वान् होकर भी मायाचारी करता है, उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है, और इसीलिए वह यथार्थ विद्वान् नहीं कहा जा सकता। विद्याका फलही सरलता हैं शोभा सरलता है, धनकी शोभा दान देनेसे होती है । दानसे कीर्ति बढती है, दान देने से शत्रुभी अपने आधीन हो जाता है, तथा संसारके समस्त कार्य दान देनेसे सिद्ध हो जाते हैं । जो लोग धन पा कर भी दान नहीं देते, उनका धन ईट पत्थरोंके समान यों ही व्यर्थ पड़ा रहता हैं, और अन्तमें वह दूसरोंका हो जाता है। इसलिए श्रम पा करके
। इसीलिए विद्वान्की
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