SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शान्तिसुधा ) आगे और भी कहते हैं । संसारहर्ताऽखिल विश्वनेता स्वभावलीनः परभावभिन्नः आल्हादकारी भवतापहारी पापप्रगाशी वरपुण्यदर्शी ॥। ५०२ ॥ अज्ञानहारी स्वपरप्रकाशो विज्ञानज्योति विकथाविनाशी । लक्ष्मीपतिर्ज्ञाननिधिविरोगी जगज्जयी कल्मषकोशहर्ता ॥५०३॥ स्वात्मास्ति मे धर्मपतिहितैषी निरामयो वा भुवि निष्कलंकः । शान्तो विपाप्मा विमदोषि वय व्यक्तोपि गुप्तो महितो महान् हि। अर्थ - यह मेरा आत्मा जन्म-मरणरूप संसारको हरण करनेवाला है, समस्त संसारका नेता है, अपने स्वभाव में लीन रहता हूँ, परभावोंमे सर्वथा भिन्न है, आल्हादको उत्पन्न करनेवाला है, संसारकं संतापका नाश करनेवाला है ना करनेवाला है, श्रेष्ठ पुण्यको देनेवाला है, अज्ञानको दूर करनेवाला है, स्वपर दोनोंके स्वरूपको प्रकाशित करने वाला है, विज्ञानकी ज्योतिस्वरूप है, विकथाओंको नाश करनेवाला है, लक्ष्मीका स्वामी हैं, ज्ञानका निधि है, रागरहित है, तीनों लोकों को जीतनेवाला है, पापोंके समस्त भंडारको हरण करनेवाला है, धर्मका स्वामी है, समस्त जीवोंका हित करनेवाला है, समस्त रोगोंसे रहित है, कलंकसे रहित है, पापरहित है, मदरहित हैं, सर्वोत्कृष्ट है, व्यक्त होकर भी गुप्त है, पूज्य है, और महान् है । ३५० भावार्थ - यह जीव अनादिकाल से इस संसार में परिभ्रमण करता चला आ रहा है, तथा यह संसारका परिभ्रमण कर्मो के निमित्तसे हो रहा है । कर्मोंका बधन इस कर्मविशिष्ट अशुद्ध जीवने किया है। यह जीव जबतक कर्मविशिष्ट रहता है, तबतक कर्मोंका बंधन करता है, परंतु जब यह आत्मा अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूपको जान लेता है, तब कर्मोको जान लेता है, तब कर्मोंको आत्मासे सर्वथा भिन्न समझकर उनको नष्ट करनेका प्रयत्न करता है । यह आत्मा ज्यों-ज्यों कषाय और कर्मोको नष्ट करता जाता है, त्यों-त्यों शुद्ध होता जाता है, और अन्तमें समस्त कर्मो को नष्ट कर मुक्त हो जाता है। मुक्त होनेपर यह आत्मा अपने जन्म-मरणरूप संसारसे सर्वथा दूर हो जाता है, और इसीलिए संसारका हर्ता कहलाता है । जब यह आत्मा कमको नष्ट करते-करते घातिया )
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy