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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) कर्म दिखाई देते हैं, क्रोधादिक कषायरूप भावकर्मभी विद्यमान हैं । जानावरणादिक द्रव्यकमंभी विद्यमान हैं, और शरीररूप नोकर्मभी विद्यमान हैं, तथापि वे सब इस आत्मा के शुद्ध स्वरूपसे सर्वथा भिन्न हैं, अथवा यों कहना चाहिए कि इस आत्माका शुद्ध स्वरूप इन तीनों प्रकारके कर्मोंसे सर्वथा भिन्न है। इसका भी कारण यह है कि ये तीनों प्रकारके कर्म पौद्गलिक हैं, तथा पुद्गल जड है, मूर्त है, आत्मा अमूर्त हैं, और चैतन्यस्वरूप हूँ | इसलिए आत्मा के शुद्ध स्वरूपको कमसे सर्वथा भिन्न माननाही पडता है । इसके सिवाय आत्मा ज्ञानमय है । जिस प्रकार सूर्य समस्त मूर्त पदार्थों को प्रकाशित करता है उपीप्रका अनन्त ज्ञानमय यह आत्मा मूर्त, अमूर्त, सूक्ष्म, स्थूल आदि समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है । साथमें अपने स्वरूपकोभी प्रकाशित करता है । इसीलिए यह आत्मा सूर्यके समान स्वपरप्रकाशी कहलाता । इसी प्रकार आत्मा का कोई विशेष आकार नहीं है, संसारी आत्मा जैसे शरीरको धारण करता है, उमीआकार स्वरूप हो जाता है और मुक्त आत्मा जैसे जितने छोटे-बड़े शरीरको छोड़ता है, उतनाही छोटा-बडा और वैसेही आकारका हो जाता है । अतएव इसका कोई विशेष आकार न होनेसे निराकार कहलाता है। इसके सिवाय यह आत्मा निराहार हैं। आहार पौदगलिक होता है, इसलिए पौद्गलिक शरीरही आहार ग्रहण करता है, और पौद्गलिक शरीरही उससे पुष्ट होता है। अमूर्त आत्मा न तो पुद्गलको ग्रहण कर सकता है, और न उससे पुष्ट हो सकता है 1 अतएव यह शुद्ध आत्मा सब प्रकारके आहार मे रहित है, तथा यही शुद्धात्मा निरंजन है, अंजन शब्दका अर्थ कर्ममल कलंकसे रहित हो, रागद्वेष आदि समस्त दोषोंसे रहित हो, उसको निर्दोष वा निरंजन कहते हैं । शद्ध आत्माभी इन सबसे रहित है, इसलिए यहभी निरंजन है । ऐसा यह शुद्ध आत्मा शुद्ध चैतन्य स्वरूप है, और स्वात्मसाम्राज्यका वा मोक्ष साम्राज्यका अधिपति है ! ऐसा शुद्ध - बुद्धचंतन्य स्वरूप आत्मा सदा चितवन करने योग्य है । ऐसे आत्मा चितवन करनेसे आत्मामें परम शांतिकी प्राप्ति होती है । इसलिए समस्त भव्यजीवों को अपने-अपने शुद्ध आत्माका स्वरूप अवश्य चितवन करते रहना चाहिए । , ३४९
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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