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( शान्तिसुधासिन्धु )
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कर्मोको नष्ट कर देता है, तब यह आत्मा वीतराग और, सर्वज्ञ हो जाता है, और समवसरण में विराजमान होकर मोक्षमार्गका उपदेश देता है, घातिया कर्मोके नष्ट हो जानसे इस आत्माका प्रभाव तीनों लोकोंमें फैल जाता है। इन्द्रादिक सब देव नसकी सेवा करने के लिए आते हैं, और समस्त भव्य जीव उनका उपदेश सुननेके लिए आते हैं। उनमें से सैकडोहजारों जीव संसारसे विरक्त होकर अपने आत्माका कल्याण कर लेते हैं । इसप्रकार उस समय यह आत्मा समस्त तीनों लोकोंका नेता माना जाता है। जिस समय यह आत्मा धातिया कोको नष्ट कर देता है , अथवा समस्त कर्मोको नष्ट कर देता है. उस समय यह आत्मा अपने स्वभाव मेंही लीन रहता है, तथा इसके कषायादिक परभाव सर्वथा नष्ट हो जाते है । कर्मोके नष्ट होनेपर सिवाय आत्मस्वभावके वा ज्ञानस्वरूप आत्माके परभावोंका सर्वथा अभाव हो जाता है, इसीलिए यह आत्मा स्वभावमें लीन रहनेवाला और परभावासे सर्वथा भिन्न कहलाता है । घातिया कर्मों के नाट होनेसे इस आत्माको अनन्तसुख प्राप्त हो जाता है, और बह अनन्तसुख फिर सदाकालतक वा अनन्तकालतक बना रहता है । अनन्तसूखके प्राप्त होनेसे संसारके समस्त संताप नष्ट हो जाते हैं, जहां अनन्तसुख प्राप्त होनेसे संसारके समस्त संताप नष्ट हो जाते हैं, जहां अनन्तसुख है वहां कोई मंताप हो ही नहीं सकता। इसलिएही यह आत्मा आल्हादकारी और भवतापहारी कहलाता है। जिस समय इस आत्माके घातियाकर्म नष्ट हो जाते हैं, उससमय कोई भी पापकर्म शेष नहीं रहता, सब पापकर्म नष्ट हो जाते हैं । समस्त पापकोंके नष्ट होनेसे पूण्यकर्मही शष रहते हैं । इसलिए उस समय यह आत्मा पापप्रणाशी और पुण्यप्रदर्शी कहलाता है । अथवा जिस समय इस आत्माके घातियाकर्म नष्ट हो जाते हैं, उससमय इसके दर्शनमात्र करनेसे भव्यजीवोंके पाप नष्ट हो जाते हैं, और पुण्यकर्मों का विशेष संचय होता है । इसलिए यह आत्मा पापप्रणाशी और पुण्यप्रदर्शी कहलाता है । केवलज्ञान होनेपर यह आत्मा सब लोकालोकको प्रकाशित करता है, इसीलिए विज्ञानज्योति कहलाता है । जहाँपर केवलज्ञान विशिष्ट यह आत्मा विराजमान रहता है वहांपर कोई भी विकथा नहीं होती, इसलिए यह आत्मा विकथाबिनाशी