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( शान्तिसुधासिन्धु )
प्रश्न – केवलं जनबृद्धच ये यतन्ते ते च कीदृशाः?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि जो लोग केवल जनसंख्या बढाने के लिए यत्न करते हैं ये कैसे है ? उत्तर - केवलं जनवद्धय को यतन्ते यावदेव ये।
नाचारो नरता तेषां तावसिद्धिन कामदा ॥ ४०१ ॥ ज्ञात्वेति कुमति त्यक्त्वा यतन्तां धर्मवृद्धये। सद्वस्त्वन्वेषणार्थ वा मोक्षसिद्धिर्भवेद्यतः ॥ ४०२॥
अर्थ- इस मंसारमें जो लोग जबतक केवल जनसंख्याकी वृद्धिके लिए प्रयत्न करते हैं, तबतक उनके न तो आचार-विचार रहते हैं, न मनुष्यता रहती है, और न इच्छावोंको पूर्ण करनेवाली आत्माको सिद्धिही होती है। यही समझकर जनसंख्याकी वृद्धि की कुबुद्धिका त्याग कर देना चाहिए, और धर्मकी वृद्धिके लिए अथवा श्रेष्ठ पदार्थों के अन्वेषणके लिए प्रयत्न करते रहना चाहिएजिससे निगीनही मोक्षणी सिल हो जाम।
भावार्थ-जो लोग जनसंख्याकी वृद्धि करना चाहते हैं, वे वास्तवमें जनसंख्या बढाना नहीं चाहते, किंतु अपनी दुर्वासनाएं पूर्ण करना चाहते हैं। संसार में बेकारी बढ़ रही है, लोगोंको पेटभर अन्न कठिनतासे मिलता है, लाखो-करोडों मनुष्य विना खायें सो जाते हैं, और यही सब कृत्य देखकर कुछ लोग संताननिग्रहका प्रश्न खडा कर देते हैं। ऐसी अवस्थामें जनसंख्याको बृद्धिकी बात कहना केवल दुर्वासनाको पूर्ण करनेका बहाना बनाना है। शास्त्रानुकल विवाहके अनन्तर होनेवाली सन्तानको तो कोई रोकताही नहीं है, परंतु शास्त्रोंकी आज्ञानुसार विधवाओंके सन्तानका होना अवश्य स्का हआ है, और जनसंख्याको वद्धि के बहानेसे इसीको वे लोग प्रचलित करना चाहते हैं। विधवाओंसे संतान उत्पन्न करना महा निर्लज्जताका और महापापका काम है । ऐसे महापापका उपदेश देना स्वयं पतित होनेकी अपेक्षाभी महापाप है । स्वयंपतित होनेवाला मनुष्य नरक जाय, वा न जाय, किंतु पतित होनेका उपदेश देनेवाला मनुष्य राजा वसूके समान अवश्य नरक जाता है । ऐसे मनुष्य के न तो कोई आचार-विचार रहता है, न मनुष्यपना रहता है, और न वह किसीभी सांसारिक कार्यकी भी सिद्धी कर सकता है। इसलिए मसमझदार नुष्योंकी