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{ शान्तिसुधासिन्धु )
अपनी इस नरकके दुःख देने वाली महा-कुबद्धिका त्याग कर देना चाहिए, और धर्मकी वृद्धि के लिए वा मोक्षके समान उत्तम पदार्थोकी खोजके लिए प्रयत्न करना चाहिए । धर्मकी वृद्धि करनेसे वा मोक्षकी बा मोक्षके कारणोंकी खोज करनेसे मोक्षकी प्राप्ति अवश्य हो जाती है, प्रत्येक भव्यजीवको पापोंसे डरते रहना चाहिए पापोंकी वा महापापोंकी ब्रद्धि हो ऐसा उपदेश कभी नहीं देना चाहिए। प्रत्येक भव्य जीवको अपने आत्माका कल्याण करनेके लिए प्रयत्न करते रहना चाहिये । यही मनुष्यपर्यायका यथार्थ फल है ।
प्रश्न - यावत्साम्राज्यलोभोस्ति सिद्धिर्नु णां भवेन्नवा ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसारमें जब तक किसी मनुष्यको साम्राज्य का लोभ विद्यमान है तब तक उसके आत्माकी सिद्धि होती है वा नहीं ? उ.- साम्राज्यवादी भुलि गावडेव साम्राज्यलोभ भयवं त्यजेन्न । तावन सिद्धिन निजात्मचर्घा स्नेहोपि न स्याद्धि मिथो जनानाम् ज्ञात्वेति भूपाः परमार्थहेतुं साम्राज्यलोभेन भवां च हानिम् । त्यक्त्वा यतन्तां यतिवर्गतुल्या निःस्वार्थबुद्धयाऽखिलविश्वसिद्ध
अर्थ-- इस संसारमें साम्राज्यको इच्छा करनेवाला मनुष्य जब तक महाभय उत्पन्न करनेवाले साम्राज्य के लोभका त्याग नहीं कर देना है, तबतक न तो आत्माकी सिद्धि हो सकती है, न आत्मतत्वकी चर्चा हो सकती है, और न लोगोंमें परस्पर स्नेह बढ़ सकता है, इसलिए समस्त राजाओंको परमार्थकी सिद्धिके कारणोंको समझ लेना चाहिए । तथा साम्राज्यके लोभसे होनेवाली हानियोंको समझकर साम्राज्यके लोभका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, और फिर मुनियोंके समुदाय के समान बिना अपने किसी स्वार्थके समस्त संसारके जीबोका कल्याण करने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए।
भावार्थ- साम्राज्यकी इच्छा करनेसे अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करने पड़ते हैं । साम्राज्यकी इच्छा करनेसे अनेक महायुद्ध करने पडते है । युद्धोंमें कितनी निर्दयतापूर्वक हिसा होती है, इस बातको सब लोग जानते हैं। इसके सिवाय साम्राज्यकी इच्छा करनेसे अनेक प्रकारके