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( शान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ- जब यह मनुष्य भोगोपभोगोंपे वा इंद्रियोंसे और संसारसे विरक्त हो जाता है, तब यह जीव अपने सब मोह और ममत्वका स्याग कर मनिदीक्षा धारण करता है । मुनि होनेपर यह मनष्य अपने गुरुसे शिक्षा प्राप्त करता रहता है, और उनकी आज्ञानसार सम्यकचारित्रका पालन करता है। वह मनुष्य अपने घरकी मुखसामग्रीका त्याग कर, आत्मकल्याण करनेके लिएही मनिदीक्षा धारण करता है, इसलिए वह अपने आत्मकल्याणका सदैव ध्यान रखता है । उसके मोहका त्याग हो ही जाता है, और रागद्वेषका सर्वथा त्याग कर देनेके कारण वह वीतराग हो ही जाता है । इसलिए वह मुनिदीक्षा लेनेके अनन्तर चाहे तो वह किसी नगर में रहे, वा किमो गांव में निवास करे, अथवा किसी वनम निवास करे, उसके लिए मब स्थान समान होते हैं। मनिलोग तो अपने आत्मासेही विशेष प्रयोजन रखते हैं फिर वे न तो राजमहलकी सुन्दरता देखते हैं, और न बन की स्वाभाविक शोभा देखते हैं। उनके लिए जैसा राजभवन बंसा पर्वत, त्रा बन । बे मुनिराज न तो बनमें रहनेका दुराग्रह करते हैं । और न गांव बा नगर में रहनेका दुराग्रह करते हैं। जहां उनको तपश्चरण करने की योग्य सामग्री मिल जाती है, वहीं रह जाते हैं। हां पहले के समय में और कलिकालके समयमें शारीरिक शक्तिका अंतर अवश्य है, पहले के संहनन अच्छे सुदृढ थे। अब इस कालम संहनन सदृढ नहीं है, पहले अनेक मुनि एका-एक, दो-दो महिनेका उपवास धारण कर बनमही रहते थे। यह बात अब नहीं हो सकती । यद्यपि वे मुनिराज मोह ममत्वसे रहित हैं, तथापि संहननकी हीनता होनेके कारण वे मनिराज इसप्रकार महीने दो महीनेका उपवास धारण कर, बनमें नहीं रह सकते । इसलिए वर्तमान कालमें मुनिराज गांव वा नगरके निकटही निवास करते हैं। पहले के कितनही मुनिराज किमी जिनालय मेंही वर्षायोग धारण करते थे, तथा वर्षायोग पूर्ण होने पर फिर किसी दूसरे जिनालयमें चले जाते थे । शास्त्रों में इनके अनेक उदाहरण हैं , इसलिए मोह और ममत्वका त्याग करने वाले मुनि अपने स्वपरकल्याणकी योग्यता देख कर बनमें, नगरमें, गांव में जिनालयम, वा पर्वतपर गुफामें वा वनमें चाहे जहां रह सकते हैं।