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________________ ४२ ( शान्तिसुधासिन्धु ) । सागरमें परिभ्रमण किया करते है । यही समझकर विचारशील पुरुषोंको अपना मोक्षरूपी स्वराज्य सिद्ध करने के लिए इस शरीरका सम्बन्ध छोड़ देना चाहिए । भावार्थ- इस शरीरके सम्बन्धसे सर्व अन्न विष्ठाके रूपमें परिणत हो जाता है, दूध पानी आदि मूत्रके रूपके परिणत हो जाता है, जो वस्त्र एक बार पहने जाते हैं उनको फिर दूसरा कोई आदमी नहीं। पहनता । चन्दन केसर कपूर आदि सुगन्धित और शुद्ध पदार्थ भी शरीरपर लगाते ही अशुद्ध हो जाते हैं फिर उनको छूता भी नहीं, वे तो निय और त्याज्य हो जाते हैं। वास्तव में यह शरीर अत्यंतणित है, मांस रुधीर आदि अस्पृश्य पदार्थोसे ही बना हुआ है, जीवके सम्बन्धसे ही यह स्पर्श करने योग्य हो जाता है, अन्यथा इस शरीरसे अब यह बीमा जाता है और मुरदा शरीर पड़ा रहता है तब उसे स्पर्श करके स्नान | करना पड़ता है । अथवा मुरदेके साथ जानेवाले चाहे स्पर्श भी करें | तो भी उन्हें स्नान करना पड़ता है, इसलिए इन निंदनीय और मर्वया | त्याज्य शरीरके सम्बन्ध से ही यह जीव महा पाप उत्पन्न करता रहता है तथा उन पापोंके निमित्तसे नरक-निगोद आदिके महा दुःख भोगता । रहता है । यद्यपि यह शरीर इस प्रकारके महा दुःखोंको देनेवाला है। सथापि यह अज्ञानी जीव रातदिन इसका पालन पोषण करता रहता है । इसके पालनपोषणके लिये अनेक प्रकारके अन्याय और अत्याचारोंसे ।। द्रव्य कमाता है और इसको सुख पहुंचानेके लिये बड़े बड़े महल दा बड़े बड़े बाग बगीचे लगाता है, अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न । करता है। ये सब बातें समझकर विचारशील पुरुषोंको शरीरसे। अपना ममत्व हटा लेना चाहिये और अत्यंत दुर्लभतासे प्राप्त होनेवाले इस मनुष्यशरीरसे तपश्चरण वा ध्यान करके अपने आत्माका कल्याण कर लेना चाहिये। यह मनुष्य-जन्मकी सार्थकता है। प्रश्न- सन्त्यात्महितकर्तारः के विश्वे वद मे प्रभो ! अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारमें आत्माका हित करनेवाले कौन कौन है ? ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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