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(शान्तिसुधा सिन्धु )
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मनुष्य अपने अन्तरंगको बिना विशुद्ध किये अपना समय व्यतीत कर देते हैं, उनके सब विचार व्यर्थ हो जाते हैं, उनकी सब क्रियायें निष्फल हो जाती हैं, और उनका मनुष्य जन्म निष्फल हो जाता है ।
भावार्थ- काम, क्रोध, मानो आदि विकारोंका त्याग कर देना अन्तरंग शुद्धि कहलाती है, तथा शरीरको शुद्ध रखना, वचनको शुद्ध रखना, क्षेत्रको शुद्ध रखना, द्रव्यको शुद्ध रखना आदि बाह्य शुद्धि कहलाती हैं । इनमें से अन्तरंग शुद्धिके होनेपर बाह्य शुद्धि अवश्य होती है, परंतु बाह्य शुद्धि के होते हुए अन्तरंग शुद्धि हो भी सकती है. और नहीं भी हो सकती है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको सबसे पहले अन्तरंग शुद्ध धारण करनेका प्रयत्न करते रहना चाहिए | अन्तरंग शृद्धिको धारण करनेसे आत्मा पवित्र होता है, आत्माकं पवित्र होने में अशुभ कर्मोका बंध नहीं होता, केवल शुभकर्मीका बंध होता रहता है, तथा कषायोंकी तीव्रता न होनेसे उन बंधकी स्थितिभी बहुत कम पडती है । इसप्रकार अन्तरंग शुद्धिको धारण करनेवाले पुरुषके कर्मोंका समुदाय बहुत कम रह जाता है, तथा उस बचे हुए कर्मोके समुदायको भी वह पुरुष अपने ध्यान तपश्चणके द्वारा बहुत शीघ्र नष्ट कर देता है। और इसप्रकार वह बहुत शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको सबसे पहले अन्तरंग शुद्धि धारण करनी चाहिए । काम क्रोधादिक समस्त विकारोंका त्याग कर आत्माको शुद्ध और पवित्र बना लेना चाहिए। ऐसा करनेसेही मनुष्य जन्म सफल होता है, समस्त क्रियाए सफल होती हैं, और शुभ परिणामभी सफल होते हैं। जो लोग अन्तरंग में तो तीव्र कषाय रखते हैं, परन्तु दुसरोंको ठगनेके लिए उपरसे कपायोंका अभाव दिखलाते हैं, वे लोग दूसरोंको जितना ठगते हैं, उससे बहुत अधिक अपने आत्माको ठगते हैं। क्योंकि तीव्र कषाय होते हुए भी अपने आत्मामें कषायोंका अभाव दिखलाना तीव्र मायाचारी है, और उस तीव्र मायाचारीका फल निगोद में जा पड़ना है । अतएव मायाचारी में न पड़कर यथार्थ दृष्टिसे अपने कषायों का त्याग कर देना प्रत्येक भव्यजीवका कर्त्तव्य है, और यही मोक्षका साधन है ।
प्रश्न - बाह्यान्तः शुद्धिचिन्हं कि वद मे शर्मंद प्रभो ?