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( शान्तिसुधा सिन्धु )
अर्थ - धर्मका आचरण करनेसे जो पदार्थ दूर वा अत्यंत दूर होते हैं, वे भी सब पदार्थ अपने समीप आ जाते हैं, जो पदार्थ अत्यंत दुर्लभ होते हैं वे भी सुलभ हो जाते हैं, जो पदार्थ असाध्य होते हैं वे भी साध्य हो जाते हैं, जो पदार्थ 'किसीके या नहीं होते हैं ने भी वश में हो जाते हैं। जो पदार्थ दुःख देनेवाले होते हैं वे भी सुख देनेवाले हो जाते हैं, जो दुष्ट होते हैं वे भी सज्जन हो जाते हैं, शत्रु मित्र हो जाते हैं, सर्प माला बन जाती है, विष अमृत हो जाता है, और लक्ष्मी पत्नी के समान हो जाती है।
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भावार्थ - धर्म सेवन करनेका फल अत्यंत विचित्र होता है, उसको कोई चितवनभी नहीं कर सकता। देखो ! से सुदर्शनको शूलीपर चढाया था, तथापि धर्मके प्रसादसे वह शूली भी सिंहासन बन गई। सती सीताने जब अग्निकुंड में प्रवेश किया था, तब सब लोग हाहाकार करने लगे थे, परंतु धर्मके प्रसादसे वह अग्निकुंड भी कमलोंसे सुशोभित सरोवर बन गया था । सोमा सतीने जब नमोकार मंत्र पढकर में से सर्प निकालने के लिए हात डाला था, तब वह सर्प धर्मके प्रसाद मेही माला बन गया था। पर्व के दिन जब राजपुत्र वारिषेण श्मशान में ध्यान धारण किए विराजमान थे तब कोई चोर, चुराया हुआ हार उनके आगे डाल गया था। चोरका पीछा करनेवाले पहरेदारने जब वारिषेणके आगे पड़ा हुआ हार देखा, तो उसने उसी समय राजासे कहा राजाने उसी समय चांडालको भेजकर उसको मारने की आज्ञा दी । चांडालने ज्यों ही तलवार मारी, त्यों ही वह तलवार पुष्पमाला बनकर वारिषेणके गलेमें पड गई । उसी समय वहींपर राजा आया और वह छिपा हुआ चोरभी सामने आया | चोरने हार चुरानेका सब अपराध स्वीकार कर लिया तत्र राजानें अपने पुत्र से क्षमा मांगी। परंतु इस कृत्य को देखकर पुत्रने पहले ही प्रतिज्ञा कर ली थी कि यदि में इस आपत्तिमे बच जाऊंगा तो दीक्षा धारण कर लूंगा । उस प्रतिज्ञाके अनुसार राजपुत्र वारिषेणने जिनदीक्षा धारण कर ली। यह सब धर्मका ही प्रभाव था, धर्मकेही प्रसादसे आचार्य मानतुंगके बंधन कट गये थे, और धर्मकेही प्रसादसे मुनिराज श्रीवादिराजका कोढ़ी शरीर सुवर्णमय हो गया था। कहांतक कहा जाय इस धर्माचरणकी अद्भुत महिमा है। जो में उक एक फूल की पंखड़ी लेकर भगवान् महावीर स्वामीकी पूजा करने चला था, किंतु मार्ग मेंही हाथी के