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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) न स्याखि जीवश्च कदापि तृप्तः, सत्कामभोगरिह जीवलोके । ज्ञात्वेति धीरैः परिवर्जनीयः, दशहा जात्रा सलोर ।। ५ ॥ (अर्थ- यद्यपि हजारों लाखों नदियोंसे समुद्र कभी तृप्त नहीं होता लकड़ों काठ वा तेलके समूहसे अग्नि कभी तृप्त नहीं होती, जल नीचेको ओर गमन करनेसे कभी तृप्त नहीं होता, पापी लोभी पुरुष धनसे कभी तृप्त नहीं होता और धूर्त पुरुष सैकड़ों पाप कर लेनेसे भी कभी तृप्त नहीं होता तथापि यदि कदाचित् हजारों लाखों नदियोंसे समृद्र भी तृप्त हो जाये, बहुतसी लकडी वा काठ तैलसे अग्नि भी तृप्त हो जाय, कदाचित् नीकी ओर गमन करनेसे जल भी तृप्त हो जाय, बहुतसे धनमे कदाचित् लोभी भी तृप्त हो जाय और सैकडों पापोंसे धूतं भी कदाचित् तृप्त हो जाय तथापि इस संसारमें यह जीवकाम भोगोंसे कभी तृप्त नहीं हो सकता। यही समझकर धीर वीर वा शूर वीर पुरुषोंको स्वर्ग मोक्षको हरण करनेवाले इस दुष्ट कामभोगका त्याग अवश्य कर देना चाहिए । ___ भावार्थ- यह जीव कामभोगोंसे कभी तृप्त नहीं होता । यह कामभोग दादके समान हैं । जिस प्रकार दादको जितना खुजाते हैं उसनी ही खुजली उसमें और बढ़ती है तथा खुजानेके बाद बहुत दुःख देता है । दाद खुजलानेसे कभी अच्छी नहीं होती । इसी प्रकार काममोगोसे भी यह जीव कभी तृप्त नहीं होता । यह जीव ज्यों ज्यों कामभोगोंका सेवन करता है त्यो त्यों कामभोगोंकी तृष्णा भी बढ़ती जाती है। इसलिए सबसे पहले अपने मनको वश में रखना चाहिए। उस मनको कामभोगोंसे हटाकर उसके दुःखदायी स्वरूपके चितवनमें लगाना चाहिए और इस प्रकार चितवन करते करते उससे विरक्त हो जाना चाहिए । यह जीव आत्मजन्य सुख पे तृप्त हो सकता है, अन्य किसीमे भी तृप्त नहीं हो सकता। प्रश्न- निजाम्नाये सतो वृत्तिः कीदृशी स्यात्वलस्य का ? अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर पह बतलाइये कि अपने आम्नायमें अर्थात् देव शास्त्र गुरुके श्रद्धानमें सज्जन पुरुषोंकी प्रवृत्ति कैसी होती है और दुष्ट पुरुषोंकी प्रवृत्ति कसी होती है ?
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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