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( शान्तिसुधा सिन्धु )
प्रश्न- देवशास्त्रगुरुं दृष्ट्वा के नमन्ति न के बद ? अर्थ- हे! कृण कीजिये कि देव शास्त्र गुरुको देखकर उनके लिये कौन नमस्कार करते हैं और कौन नहीं करते ?
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उत्तर - शुद्धं बुद्धं जिनं स्तुत्यं शास्त्रं स्याद्वादशोभितम् । स्वानन्दस्वावकं साधुं जंनधर्मशिरोमणिम् ।। १२७ ॥ पूर्वोक्तदेवगुर्वादीन् संसारबंधभेदकान् । काष्ठवृक्षशिलाभित्तिमुखश्चेते नमन्ति न ॥ १२८ ॥ शेषा दृष्ट्वा नमन्त्येव पूजयन्ति च भक्तितः । मन्यन्ते सफलं जन्म लौकान्तिका यथा जिनम् ॥
अर्थ - भगवान जिनेंद्रदेव अत्यंत शुद्ध हैं, अनंत ज्ञानी हैं, और तीनों लोकोंके इंद्रोंके द्वारा स्तुति करने योग्य है। उन्हीं भगवान जिनेंद्रदेव के कहे हुए शास्त्र स्याद्वादरूपी अटल सिद्धांत से सुशोभित है, तथा वीतराग निर्ग्रथ गुरु अपने आत्मजन्य सुखका अनुभव करनेवाले है । इस पवित्र जैनधर्म में ये तीनों ही सर्वोत्कृष्ट माने जाते हैं। ये देव, शास्त्र, गुरु तीनों ही संसारके बंधनोंको नाश करनेवाले हैं। ऐसे इन देव, शास्त्र गुरुको देखकर, बडे-बडे लक्कड, वृक्ष, शिला दीवाल और मूर्ख लोग कभी नम्रीभूत नहीं होते, इनको छोड़कर बाकीके जितने जीव हैं वे सब इन देव, शास्त्र, गुरुओं को नमस्कार करते हैं । भक्ति पूर्वक उनकी पूजा करते हैं, और जिस प्रकार लोकांतिक देव भगवान तीर्थंकर परमदेवको दीक्षाके समय देखकर अपना जन्म सफल मानते हैं, उसी प्रकार वे जीव भी देवशास्त्र गुरुकी पूजा भक्ति कर आपना जन्म सफल मानते हैं ।
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भावार्थ- नम्रता एक आत्माका गुण है। जिन जीवोंके मोहनीय कर्मका, वा मानकषायका तीव्र उदय होता है, उन जीवों के नम्रता कभी नहीं हो सकती । इसलिये जो पुरुष देव, शास्त्र गुरुको देखकर भी उनको नमस्कार नहीं करते है. वे अपने तीव्र मानकषायके उदयके वशीभूत होकर बडे लक्कडके समान, अथवा बड़े वृक्षके समान, अथवा दीवालके