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________________ ( शान्तिसुधा सिन्धु ) भावार्थ- अपने घर में अग्नि लगा देना वा अपने अन वस्त्र सत्र जला देना अथवा अग्निमें कूदकर जल जाना आदि सब अग्निका दुरुपयोग है तथा मुनिराजोंको आहार देनेके लिए अग्नि भोजन बनाना वा श्रावकों को भोजन करानेके लिए भोजन बनाना वा दानके लिए औषधियां तैयार कराना अथवा भगवान जिनेन्द्रदेवको चानके लिए लाडू वा नैवेद्य बनाना अग्निका सदुपयोग है । इस प्रकार अग्निका सदुपयोग करनेसे यह जीव इस लोकमें भी सुखी होता है और परलोकके लिए भी अनन्त पुण्य कमा लेता है। इसी प्रकार इस शरीर से हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना, दुराचार सेवन करना, अधिक परिग्रह इकट्ठा करना, अभक्ष्य पदार्थोंका भक्षण करना, अन्याय करना, सातों व्यसनों का सेवन करना, लूटना, भारना आदि सब कार्य शरीरका दुरुपयोग है। तथा इसी शरीर से भगवान जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना, मुनियोंके लिए शुद्ध निर्दोष आहार दान देना, क्षुल्लक, ऐलक, अर्जिका, क्षुल्लिका श्रावक श्राविका, आदिको आहार दान देना, औषध दान देना, वस्त्रादिक दान देना, जिन शास्त्रोंको लिखना, पढना, दान देना, व्रत, उपवास करना, तपश्चरण करना, देख-शोध कर चलना, जीवों की रक्षा करना, शुद्ध निर्दोष भोजन करना, ब्रह्मचर्य पालन करना आदि कार्य करना शरीरका सदुपयोग है | शरीरका सदुपयोग करनेसे यह जीव अपने धर्मका पालन करता है और इसीलिए इस लोकमें मान्य पूज्य होता हुआ परलोकमें स्वर्ग मोक्ष के सुख प्राप्तकर लेता है। तथा शरीरका दुरुपयोग करनेसे इस लोक में अनेक रोगादिक तिरस्कारादिकके दुःख भोगता हुआ परलोकमें नरक निगोदके दुःख भोगता है । इस लिए विचारशील पुरुषोंको यह अत्यंत दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर इसको सदाकाल सदुपयोग में ही लगाना चाहिए। शरीर धारण करनेका यही फल है। ४६ 1 प्रश्न- रौद्रध्यानी नरः श्वभ्रं याति वा न प्रभो वद ? अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि रौद्रध्यानको धारण करनेवाला यह मनुष्य नरकमें जाता है बा नहीं ? उत्तर - हिंसानन्वमृषानन्दस्तेयानन्दादिसंयुतः । सम्यक्त्व सुख निर्मुक्तः प्रयाति नरकं नरः ॥ ७० ॥ ม 1
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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