________________
( शान्तिसुधासिन्धु )
करता हुआ पाप बन्ध्र किया करता है। मायाचारी करनेवाला न जाने कितने लोगोंको हानि पहुंचाया करता है । लोभी पुरुष सब प्रकारके अन्याय और अत्याचार किया करता है । कामी पुरुषसे संसारका कोई पाप नहीं बन सकता । इस प्रकार ये सब आत्माके बिकार इस जीवको इस लोकमें भी दुःख देते हैं और परलोकमें भी नरकादिकके दुःख देते हैं । इसी प्रकार धनादिकको तृष्णासे वा भांगोपभोग सेवन करने को लालसासे भी सदा पाप उत्पन्न होते रहते हैं और इसीलिए ये सब विकार आत्माका अहित करनेवाले हैं। ये विकार कर्मों के निमिससे होते हैं और कार्मोंका सम्बन्ध इन्हीं विकारोंसे होता है। इसलिए आत्माको मुख पहुंचाने के लिए इन सब विकारोंका त्याग कर देना चाहिए और इन विकारोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका भी नाश कर देना चाहिए।
प्रश्न- देहद्वारेण जीव: स्वहिताहितं करोति किम् ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बसलाइये कि यह जीव अपने शरीरसे क्या-क्या अपना हित करता है और क्या-क्या अपना अहित करता है। उत्तर - देहदुरुपयोगाद्धि जीवोयं धर्मवजितः ।
याति सन्नरक निधं दुःखद मर्मभेदकम् ।। ६७ ॥ देहसदुपयोगात्स्याज्जीवोयं धर्मधारकः । लभते स्वर्गसौख्यं च मोक्षसुखमनुक्रमात् ॥ ६८ ॥ अग्नेर्दुरुपयोगाद्धि यथा वस्त्रानवजितः । तत्सदुपयोगात्स्यात्सदा सुखी गृहस्थकः ।। ६९ ॥
अर्थ- जिस प्रकार अग्निका दुरुपयोग करनेसे वह गृहस्थ अन्न बस्त्रसे रहित हो जाता है और उसी अग्निका सदुपयोग करनेसे वही गृहस्थ सदा सुखी बना रहता है उसी प्रकार शरीरका दुरुपयोग करनेसे यह जीव धर्म-कर्मसे रहित होकर अत्यन्त निद्य दुःख देनेवाले और मर्मस्थानको भेदन करनेवाले नरकमें जा पडता है । तथा इसी शरीरका सदुपयोग करनेसे यह जीव धर्मको करता हुआ स्वर्गोका सुख प्राप्त कर लेता है और अनुक्रमसे मोक्षके सुख प्राप्त कर लेता है ।