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( शान्तिसुधासिन्धु )
प्रश्न-- स्वात्माहितकराः पृथ्व्यां के सन्ति वद मे प्रभो !
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइये कि इस पृथ्वीपर अपने । आत्माका अहित करनेवाले कौन कौन है ? उत्तर - दाहाकराः क्रोधपिशाचवर्गाः,
स्पृहाः प्रदोषाश्च सदा व्यथादाः । मोगोपभोगादिकसेवनेच्छाः, क्रूराः सदा मर्मविदारकाश्च ।। ६५ ॥ पूर्वोक्तभावाश्च निजात्माबाह्याः, प्रोक्तास्तथात्महितकारकाश्च। शास्वेति धीरैः स्वपरात्मशान्त्य
प्रवर्जनीयाश्च परा: पदार्थाः ॥ ६६ ।।
अर्थ- इस संसारमें क्रोधरूपी पिशाच्चोंका समूह इस शरीरको जला देनेवाला है, मर्मस्थानोंको विदीर्ण कर देनेवाला है, क्रूरता उत्पन्न करने वाला है और अनेक प्रकारके दुःख देनेवाला है । इसी प्रकार भोगोपभोगादिके सेवन करने की इच्छा वा तृष्णा आदि अनेक दोष दुःख देनेवाले हैं वा मर्भस्थानोंको विदीगं करनेवाले हैं। ये सब अशुद्ध आत्माके भाव हैं और इसीलिए अपने आत्माके स्वरूपसे भिन्न हैं अपने आत्माके स्वरूपसे भिन्न होनेके ही कारण ये सब विभावभाव आत्माका अहित करनेवाले है । यही समझकर धीर बीर पुरुषों को अपन आत्माको अटल शांति प्राप्त करनेके लिए तथा अन्य जीवोंको शाति प्राप्त करानेके लिए पर पदार्थोंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए
भावार्थ- क्रोध शब्दसे क्रोध, मान, माया, लोभ, काम आदि आत्माको दुःख देनेवाले जितने विकार हैं वे सब ग्रहण कर लेना चाहिए । जो पुरुष अत्यन्त क्रोधी होता है वह अपने हृदय में सदाकाल जला करता है तथा दूसरेके मर्मको विदीर्ण करनेवाले वचन ही उसके मुखसे निकलते है । क्रोधके आवेशमें आकर वह अन्य जीवोंका भी घात कर देता है। - इस प्रकार इस लोकमें महा दुःख भोगकर परलोकमें नरकादिकके दुःख । भोगता है । इसी प्रकार मान करनेवाला गुणी जनोंका भी तिरस्कार .