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( शान्तिसुधामिन्ध )
उत्तर-धूतादि व्यसनस्यैव त्यागाद्देहस्य त्यागवत् ।
भयसप्तकवातुश्च सप्तश्वभ्रप्रदायिनः ।। ४३३ ।। अलब्धाऽपूर्वशांतिः स्यात्स्वात्मनि शाश्वती सदा । दुष्टपक्षपरित्यागाच्छान्तिर्विश्वेऽखिले यथा ॥ ३३४ ॥
अर्थ - जिस प्रकार दुष्ट पक्षका सर्वथा त्याग करनेसे समस्त संसारमें शांति हो जाती है, अथवा जिस प्रकार इस शरीरका सर्वथा त्याग कर देने से, इस शुद्ध आत्मामें निरन्तर रहनेवाली शांति प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार सातों नरकोंके दुःख देनेवाले, और सातों भयोंको उत्पन्न करनेवाले, और सातों व्यसनोंका सर्वथा त्याग कर देनेसे इस आत्मामें परम शांति प्राप्त हो जाती है।
भावार्थ- जूआ खेलना, मांस भक्षण करना, मद्यपान करना, बेट्या सेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना, और परस्त्री सेवन करना, ये सात व्यसन कहलाते हैं। ये सातोही व्यसन महादुःख देनेवाले और तीव्र आकुलता उत्पन्न करनेवाले हैं। इनमें जुआ सब व्यसनोंका राजा है । जूआ खेलनेवाला यदि हार जाता है, तो महादुःस्त्री होता हैं, तथा हार जान के कारण चोरी करता है। यदि वह जीत जाता है, तो फिर और खलनेकी तीव्र आकुलता धारण करता है और वेश्या सेवन, परस्त्री सेबन, मद्यपान आदि अन्य अनेक प्रकारके अनर्थ करता है । जुआरी लोग अपना सब धन हार जाते हैं, और स्त्रीपुत्र तकको खो जाते हैं। इस जुआकेही कारण पांडवोने महादुःख उठाया था, इसलिए इस जूएका त्याग कर देनेसे आत्मशांति प्राप्त होती है । मांस भक्षण महापापका कारण है। किमी जीवको मारेबिना मांस उत्पन्न नहीं होता, तथा जिसका मांस होता है, उसमें उसी जातिके अनेक जीन्न प्रतिसमयमें उत्पन्न होते रहते हैं, तथा मांसके सार्श करने मात्र से वे सब मर जाते हैं। इसके सिवाय मांस भक्षण करनेसे सत्र इंद्रिया उत्तेजित रहती हैं, और फिर अनेक प्रकारके अनर्थ उत्पन्न करते हैं । इसलिए ऐसे इस मांस-भक्षणका त्याग कर देनेसे आत्मा में भारी शांति उत्पन्न होती है । मद्यमान करनेसे आत्मा बेहोश हो जाता है और बेहोश होकर अनेक प्रकारके पाप और अनर्थ करता है । इसके