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( शान्तिसुधासिन्धु)
इस संसारमें अनंत दुःख भोग रहा है। ऐसे ही जीवके लिए उस दुःखमे छूटने और मोक्षमें प्राप्त होनेवाले अनंत सुख प्राप्त करने के लियं रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गका निरूपण किया है । वह रलवयरूप मोक्षका मार्ग कर्मबंधनोके कारणोंसे सर्वथा भिन्न है। कर्मोंका बंधन रागादिक विकार भावोंसे होता हैं और मोक्षकी प्राप्ति रागादि रहित निर्विकार भावोंसे होती है। यदि बंधरहित मुक्त जीवको भी मुक्त होना मान लिया जायगा तो फिर मुक्त होनेकी यह सब व्यवस्था व्यर्थ ही माननी पड़ेगी। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि जो जीव कर्मबंधसे सर्वथा रहित है वह अत्यंत शुद्ध है तथा शुद्ध होने के कारण वह रागद्वेषसे भी सर्वथा माहित होते कारण तो वह कोदा न कर सकता है और न मुक्त हो सकता है। इस प्रकार बंधरहित जीबका मुक्त मानना सर्वथा असंभव है। इन सब बातोंसे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि बंधनसे बद्ध ही जीव मुक्त होता है । कर्मबंधरहित जीव कभी मुक्त नहीं हो सकता।
प्रश्न- अनादिबद्धो जीवोयं मुच्यते कर्माणा कथम् ?
अर्थ- हे भगवन् ! यह बतलानेकी कृपा कीजिये कि अनादिकालसे बंधा हुआ यह जीव कर्मोसे कैसे मुक्त हो जाता है ? उत्तर - यः कर्मबद्धोस्ति स बद्ध एवं
न मुच्यते कार्यशते कृतेपि। एवं छान्मन्यत एव कोपि प्रगण्यते धूर्ततरः स मूढः ॥ १०५॥ विधि च लब्ध्दा खनिजातरुक्म यथा विशेषेण विशुध्यते हि । निसर्गसिद्ध जननस्वभावं यथा सुदग्धं त्यजतोह बीजम् ॥ १०६ ।। योऽनदिबद्धोपि तथा हि जीवः त्यक्त्वा प्रमोहं सुगुरुं च लब्ध्वा ।