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( शान्तिसुधासिन्धु )
ध्यानाग्निना कर्मचयं सुदग्ध्वा
यात्यत्र मोक्षं सुखदं सदैव ॥ १० ॥ अर्थ- कोई कोई लोग ऐसा मानते हैं, कि जो जीव कर्मोंसे बंधा है, वह सदाकाल बंधा ही रहता है । कोस बंधा हुआ जीव सैकडो कार्य वा उपाय करनेपर भी उन कर्मोसे कभी नहीं छूट सकता। इस प्रकार बहुतसे जीव मानते हैं, परंतु ऐसे लोग अत्यंत धूर्त और अज्ञानी हो समझे जाते हैं । देखो ! जिस प्रकार खानमें से मिट्टी मिला सोना निकलता है, परंतु वही मिट्टी मिला सोना विधिपूर्वक गलानेसे अत्यंत शुद्ध होता जाता है, तथा बीजमें उत्पन्न होनेकी शक्ति स्वाभाविक होती है, परंतु उस बीजके जल जानेपर वा भुन जानेपर बीजकी उत्पन्न होनेकी शक्ति नष्ट हो जाती है । उसी प्रकार अनादिकालसे कर्मों द्वारा बंधा हआ जीब भी अपने निग्रंथ श्रेष्ठ गुरुको पाकर, मोहका त्याग कर देता है, और ध्यानरूपी अग्निसे समस्त कर्मोको जलाकर, सदाकालके लिए सुख देनेवाले मोक्षमें जाकर विराजमान हो जाता है ।
भावार्थ- जिस प्रकार खानमें मिट्टी मिला सोना, अनादिकालसे मिट्टीसे मिला हुआ है, तथापि प्रयत्न करनेसे गलानेसे, तपानेसे उसकी मिट्टी अलग हो जाती है, और सोना अत्यंत शुद्ध हो जाता है, इसी प्रकार यह जीव भी यद्यपि अनादिकालसे कर्मोसे बंधा रहा है, अनादिकालसे ही उन रागद्वेष के कारण कर्मोका बंधन करता चला आ रहा हैं, तथापि जब यह जीव श्रेष्ठ गुरुओंका समागम पाकर रागद्वेषका त्याग कर देता है, और तपश्चरण व ध्यानके द्वारा अनुक्रमसे समस्त कोको नष्ट कर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त कर लेता है। कोंक सर्वथा नष्ट हो जानेसे वह आत्मा अत्यंत शुद्ध हो जाता है । शुद्ध हो जानेके कारण राग द्वेष आदि समस्त विकारोंका सर्वथा अभाव हो जाता है, विकारोंका अभाव हो जानेसे फिर यह आत्मा काँका बंधन कमी नहीं कर सकता । जिस प्रकार बीजके जल जानेसे वा भुन जानेसे फिर उसमें उत्पन्न होनेकी शक्ति नहीं रहती, उसी प्रकार आत्माके शुद्ध हो जानेसे तथा रागद्वेषका सर्वथा अभाव हो जानेसे फिर उस आत्मामें कर्म बंधन होने की शक्ति नहीं रहती । कर्म मूर्त हैं, इसलिए कर्मविशिष्ट