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________________ (शान्तिसुधासिन्धु ) आत्मा ही उन कर्मोका बंध कर सकता है । जो आत्मा कर्मरहित अमूर्त हो जाता है, वह कर्मोका बंध कभी नहीं कर सकता । इन सब बातोंसे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि कर्मबद्ध आत्मा भी तपश्चरण वा ध्यानके द्वारा उन कर्माको नष्ट कर मुक्त हो सकता है, और मुक्त होनेपर फिर कभी भी कर्मबद्ध नहीं होता। इसलिए "कर्मबद्ध आत्मा कभी मुक्त नहीं होता” ऐसा जो मानते हैं, वे सर्वथा भूलते हैं । प्रश्न- त्यज्यते पापमेघ को पुण्यमपि न मे मतिः ? अर्थ- हे भगवन् ! में तो यह समझता हूं कि इस संसारमें इस प्रकारके लोग पापका त्याग तो कर देते हैं, परंतु पुण्य का त्याग कोई नहीं करता । क्या यह बात सत्य है ।। उत्तर - तीव्रचारित्रमोहादिकर्मोदयवशाद पदि । सर्वसंगपरित्यागं कर्तुं शक्तो भवेन्न चेत् ॥ १०८ ॥ तॉवश्यं सदा निचं साम्राज्यसौख्यनाशकम् । अवस्करमिव त्यक्त्वा सेव्यं पापं नराधमः ॥ १०९ ॥ पुण्यकार्ये प्रवृत्तिश्च कुर्याद बांछितवे सदा । आत्मशक्तिविशिष्टा स्वाद् यदा स्वानन्दशोधिनी । सदा पापसमं पुण्यं मत्वा तत्त्वात्स्वघातकम् । यतिनिधं जवात्स्यक्त्वा चित्ताक्षतृप्तिकारकम् ॥ १११।। चिदानंदपदं शुद्धं निराकारं निरामयम् । निद्वं हि क्रमाद् ध्यायन् मोक्षं यात्येव धीधनः ।११२॥ अर्थ- चारित्रमोहनीय कर्मके तीन उदयसे यह जीव अंतरंग बहिरंग समस्त परिग्रहोंका त्याग नहीं कर सकता, तब यह जीव आत्मजन्य अनंतसुखको नाश करनेवाले नीच मनुष्योंके द्वारा सेवन करने योग्य अत्यंत निध ऐसे पापोंको विष्ठाके समान त्याग कर देना है, तथा इच्छानुसार फल देनेवाले · पुण्यकार्यमें अपनी प्रवृत्ति करता रहता है, परंतु ऐसा करते-करते जब इस आत्माकी शक्ति विशेष बढ़ जाती है, और अपने आत्मजन्य अनंत सुखकी खोज करने में रुक जाती है, तब यही आत्मा पुण्यको भी पापोंके समान ही अपने आत्माका धात
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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