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( शान्तिसुधासिन्धु )
तर्क-वितर्क नहीं चल सकता, ऊपर बता चुके हैं कि अभव्य जीवोंका स्वभाव सम्यग्दर्शनको प्रगट न होने की योग्यता रखना है। इसलिए न तो कभी उसके सम्यग्दर्शन प्रगट हो सकता है, और न कभी सम्यग्दर्शनके साथ प्रगट होनेवाली स्वात्मानुभूतिही प्रगट हो सकती है । इसलिए वह कभीभी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता, यद्यपि वह अभव्य जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता, तथापि वह पुण्यकार्य करता हुआ सुखी रह सकता है । इसलिए पुण्य उपार्जन करना प्रत्येक जीवमात्रका कार्य है । इसमें किमीकोभी नहीं चूकना चाहिए। प्रश्न- गुरोराज्ञा विना शिष्यो यत्र कुत्रापि स्वेच्छया ।
यदि स्वपेत्तथा गच्छेद् वद मे कीदृशोस्ति सः । अर्थ- हे भगवन् ! अन्न' कृपा कर यह बतलाइए कि जो शिष्य अपने गुरुकी आज्ञाके बिना अपनी इच्छानुसार जहां कहीं सो जाता है, अथवा जहां कहीं चला जाता है, वह कैसा शिष्य कहलाता है । उ. गुगेराज्ञां विना शिष्यः स्वपूजाख्यातिहेतवे ।
स्वेच्छया यत्र कुत्रापि स्वपिति गच्छतीति यः ।। ३२३ ॥ स एव मार्गलोपी स्यात्स्वच्छन्दमार्गपोषकः । जैनधर्मविरोधी स मिथ्यामतप्रचारकः ॥ ३२३ ।। स्वयं पतेद् भवान्धौ स तथान्यान् पातयत्वलः । ज्ञात्वा गुरुविरोधीति तं त्यजेद् दूरतः सुधीः ॥ ३२४ ।।
अर्थ- जो शिष्य अपनी पूजा-प्रतिष्ठा बढाने के लिए, अपने गुरुकी आज्ञाके बिना अपनी इच्छानुसार चाहे जहां जाकर सो जाता है, वा चाहे जहां चला जाता है, उस शिष्यको मोक्षमार्गका लोप करनेवाला समझना चाहिए, मोक्षमार्गसे भिन्न किसी स्वतंत्र मार्गको पुष्टि करनेवाला समझना चाहिए, जैनधर्मका विरोधी समझना चाहिए, और मिथ्यामतका प्रचार करनेवाला समझना चाहिए। ऐसा दुष्ट शिष्य, इस संसाररूपी महासागर में स्वयं पडकर परिभ्रमण करता है, और अन्य जीवोंकोभी इस संसारसागरमें परिभ्रमण कराता है। बद्धिमानोंको ऐसे शिष्यका गुरुबिरोधी समझकर दूरसेही त्याग कर देना चाहिए ।