________________
( शान्तिसुधासिन्धु )
सकते, लोभी पुरुष कभी पवित्रता धारण नहीं कर सकते, स्वर्गमें कभी पीडा नहीं होती, आत्मजन्य सुख में कभी दुःख नहीं होता, उत्तम मोगभूमि कभीमानको चिन्ता नहीं होती, अग्निमें कभी शीतलता नहीं होती, आकाशमें कभी फूल नहीं लगता, मोक्ष में कभी अशान्ति नहीं होती, और नरकमें कभी शान्ति नहीं होती. तथापि यदि ये सब बातें हो जांय, लोहेमें सुगंधभी आ जाय, दुष्ट पुरुष नीनी और न्यायकाभी पालन करने लगे, ईव पर फलभी लग जांय, लोभी मनुष्यम पवित्रता भी आ जाय, स्वर्ग में भी पीडा होने लगे. आत्मजन्य मुखमभी दुःख मालूम होने लगे, उत्तम भोगभूमिमें भी धनकी चिंता करनी पडे, अग्निमें भी शीतलता आ जाय, और आकाशमभी पुप्प लग जाय, मोक्षम भी अशांति हो जाय, और नरक में भी शांति हो जाय, तथापि अभव्य जीवके स्वात्मानुभूति कभी किसी कालमें भी नहीं हो सकती ।
भावार्थ – जिसमें सम्यग्दर्शन प्रगट होनेकी योग्यता होती है उसको भव्य कहते हैं, और जिसमें सम्यग्दर्शन प्रगट होने की योग्यता न हो , उसको अभब्य कहते है । यह भव्यत्व और अभव्यत्व जीवका स्वभाव है। जैसे उबालनेसे कोई मंग गल जाती है, और कोई नहीं गलती, यद्यपि दोनोंही मूंग कहलाती हैं, तथापि एकका स्वभाव गल जानेका है, और एकका हजार प्रयत्न करनेंपरभी न गलने का है। इसी प्रकार कारणसामग्री मिलनेपर भव्यजीबको सम्यदर्शन प्रगट हो जाता है, सम्यग्दर्शनके साथही स्वात्मानुभूतिके होनेपर वह भव्य जीव सम्यक्त्रारित्र धारण कर मोक्षप्राप्त कर लेता है, परंतु अभव्य जीवका स्वभाव सम्यग्दर्शनको प्रगट करने की योग्यता नहीं रखता । यद्यपि वह सम्यग्दर्शन उस आत्माका एक गुण है और वह उस आत्मामें विद्यमान है, तथापि उस सम्यग्दर्शनको ढकनेवाले दर्शनमोहनीय कर्मको नष्ट कर सम्यग्दर्शन प्रगट कर लेना, उसके स्वभावसे बाहर है । इस संसारमें जिस-जिस पदार्थ के जो-जो स्वभाव हैं उनमें किसीका तर्क-वितर्क नहीं चल सकता । नीम कडबा क्यों है, ईख मीठा क्यों है, अग्नि गर्म क्यों है, इनका कोई कुछ उत्तर नहीं दे सकता, और न इनमें कोई किसी प्रकारका तर्क- वितर्क कर सकता है । इसी प्रकार भव्यत्व और अभव्यत्वभी भव्य और अभव्यजीवोंके स्वभाव हैं। इनमें किसीका कोई