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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) २२३ भावार्थ- ब्रह्मचर्यप्रतको पूर्ण रीतिसे पालन करनेके लिये गुरुके समीपही शिष्योंको निवास करना चाहिए । गुरुके समीप रहनेसे ब्रह्मचर्यकाभी पालन होता है, और अन्य समस्त प्रतोंका पालन हो सकता है । दूसरी बात यह है कि, गुः स्मनायसही सब जोपोंके परम हितकारी हैं । फिर भला शिष्योंका कल्याण तो चाहतेही रहते हैं । यदि शिष्य गुरुके समीप रहता है, और सदाकाल उनकी आज्ञानुसार चलता है, तो फिर गुरुभी उसकी व्रतोंमें किसी प्रकारका दोष नहीं लगने देते। गुरु शिष्यका परम उपकार करते हैं, तथा शिष्यसे कुछ चाहतेभी नहीं। ऐसी अवस्थामें वह शिष्य उन गुरुको सेवासुश्रूषा कर सकता है, और उनकी आज्ञानुसार चलकर, उन्हें प्रसन्न कर सकता है। गर स्वयं मोक्षमार्गमें लगे रहते हैं, और शिष्यों को लगाते रहते हैं । अतएव अपने आत्माका कल्याण करने के लिएभी शिष्योंको उनकी आज्ञा में रहना अत्यावश्यक है । जो शिष्य ऐसे ग्रुओंकी आज्ञाको नहीं मानता है, उसे तो फिर मोक्षमार्गका लोप करनेवाला समझना चाहिए, गुरुका विरोधी और उच्खल समझना चाहिए, तथा मिथ्यामतका प्रचार करनेवाला समझना चाहिए । साधारण गृहोंका कोई लडका यदि माता-पिताकी आज्ञाके बिना कहीं बाहर जाकर सोता है. तो वहभी अयोग्य समझा जाता है, लोग उसके सदाचारमें संदेह करने लग जाते है, फिर भला गुरुकुलमें रहनेवाला आचार्योका शिष्य यदि मरकी आज्ञाके विना बाहर जाकर सो जाता है, वा अन्यत्र चला जाता है, तो फिर उसका ब्रह्मचर्य वा उसके व्रत निर्दोष रीतिसे कैसे पालन होते हैं, और वह शिष्य सुशिष्य कैसे कहलाता है ? ऐसा कुशिष्य तो उच्छृखल होकर मोक्षमार्गका वा जैनधर्मका लोप कर देता है । इसलिए ऐसे शिष्यका दूरसेही त्याग कर देना अच्छा है। किसी शिष्यका न होना अच्छा, परंतु ऐसे कुशिष्य का होना कभी कल्याणकारी नहीं कहा जा सकता। प्रश्न - रक्षति केवलं बंधून धनेन स कथं वद ? अथै -- हे भगवान् ! अब कृपाकर यह बतलाइए-कि जो पुरुष अपने धनसे केवल भाई बन्धुओंका ही रक्षण करता है वह कैसा है ? उ. धनेन धर्मस्य जिनालयस्य देवस्य शास्त्रस्य गुरोः क्षमाब्धेः । भक्त्या सुधर्मायतनाविकानां रक्षां न कृत्वा शिवसौल्यवानाम् ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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