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( शान्तिसुधासिन्धु )
धनेन भृत्यान् स्वकुटुंबवर्गान् यः केवलं रक्षति मोहबुद्धया। प्रत्यक्षमेव प्रतिमाति को स पशुश्च पापी नरकप्रवासी ३२६
अर्थ – पुण्यकर्मके उदयसे इस धनको पाकरके धर्मको रक्षा करना चाहिए, जिनालयकी रक्षा करना चाहिए, देवकी रक्षा करना चाहिए, शास्त्रकी रक्षा करनी चाहिए, और क्षमाके सागर ऐसे निग्रंथ गुरुओंकी सेवा कर, रक्षा करनी चाहिए । इस प्रकार पोक्षके सुख देनेबाले जितते श्रेष्ठ धर्मायतन है उनकी रक्षा भक्तिपूर्वक करना चाहिए जो पुरुष अपने धनसे इन धर्मायतनोंकी रक्षा नहीं करता और केवल मोहके वशीभूत होकर अपने सेवकोंकी बा अपने कुटुम्बकीही रक्षा करता है, वह इस संसारमें पशु, पापी और नरकगामी जान पड़ता है।
भावार्थ - यह धन पुण्य कर्मके उदयसे प्राप्त होता है । वह पुण्य दो प्रकारका होता हैं, एक पुण्यानुबंधीपुण्य, और दूसरा पापानुबंधीं पुण्य । दान देना पुण्य कार्य है परंतु रत्नत्रयको धारण करनेवाले श्रेष्ठ पात्रोंको दान देनेसे जो पुण्य प्राप्त होता है उसको पुपयानुबंधीपुण्य कहते है । ऐसे पुण्यके उदयसे जो धन प्राप्त होता हैं वह पुण्य कार्यमही लगता है, और आगेके लिए भी पुण्यकमोंका संपादन करता है। परंतु जो दान कुपात्रोंको दिया जाता है, उस दानसे होनेवाला पुण्य पापानुबंधीपुण्यकर्म होता है । उस पापानबंधी पुण्यकर्मके उपायसे जो धन प्राप्त होता है, वह पापकार्यमेंही लगता है। इसका कारण यह है कि श्रेष्ठ पात्रोको जो दान दिया जाता है, वह रत्नत्रयके साधनही लगता है। किसी मुनिको दिया हुआ आहारदान उनके तपश्चरण और ध्यानकी वृद्धि मेंहीं लगता है 1 इसलिए उस दानसे जो पुण्य प्राप्त होता है, उसके उदयसे होनेवाली धनादिक सामग्री आगामी कालके लिए भी श्रेष्ठ पुण्यको बढानेवाली होती है। ऐसे पुण्यकोही पुण्यानुबंधपुण्य कहते है, तथा कुपात्रको जो दान दिया जाता है उससे कषाय और विषयोंकी पुष्टि होती है । इसलिए उस दानसे जो धनादिक सामग्री प्राप्त होती हैं वह पापकार्यों मेंही लगती है या विषयकषायोंकी पुष्टि ही लगती है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि, धन प्राप्त करनेका फल धर्माय-- तनोंकी रक्ष करनाही है। धन पा करके प्रभावना अंगकी वृद्धि कर