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________________ ( शान्तिमुधासिन्धु ) 127 वह सुखसा जान पडता है, परंतु अन्तमें सब मुंह छिल जानेसे महादुखी होता है, अथवा जिसप्रकार यह मनुष्य दाद खुजानेमें सूख मानता है। परंतु अन्तमें यह उस दादके खुजानेसे महादुःखी होता है। उसीप्रकार इस संसारमें जितने सुख है, वे सब पहले सेवन करते समय बहुत अच्छे जान पडते है, परंतु अन्त में उन सुखोंमे सदा दुःखीही होता है । सांसारिक सुख कहने को तो सुख है, परंतु समस्त सुख आत्माको परम शांतिको नष्ट करनेवाला है। इसीलिए आत्माके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले, तथा आत्माके अनंतसुखका स्वरूप समझनेवासे भव्यपुरुष, उसे दुःख ही मानते है, इसके सिवाय संसारके जितने सुख है, वे सब पाप उत्पन्न करनेवाले है, राज्य करने में महापाप होता है, इंद्रियों के विषयसेवन करने में महापाप उत्पन्न होता है, कामसेवनमें महापाप होता है. पुत्र-पौत्रोंके पालनपोषणमें महापाप होता है, और घर-गृहस्थी में, व्यापारादिकसे वा रसोई बनाने, पानी भरने, आदि कार्योंसे सर्वदा पाप उत्पन्न होता रहता है । उन सब पापोंके उदयसे अनेक प्रकारके दुःख इसी जन्ममें भोगने पड़ते है, और परलोकमें नरकनिगोद आदिके दुःख भोगने पड़ते हैं। इस प्रकार यदि विचार किया जाय तो भी ये सांसारिक सुख महादुःखके कारण है । अतएव आत्मामें परमशांति और आत्मजन्य यथार्थ सुख प्राप्त करने के लिए, इन सांसारिक समस्त सुखोंका त्याग करकेभी परम शांति प्राप्त नहीं करते, उनका वह सब त्याग व्यर्थ समझना चाहिए। जिसप्रकार आत्मज्ञानसे सर्वथा रहित मुनिका ध्यान, तपश्चरण आदि सब व्यर्थ समझा जाता है, उसी प्रकार शांतिरहित भव्यजीवका इंद्रियादिके विषयोका त्यागभी व्यर्थही समझा जाता है । अतएव इन सांसारिक समस्त मुखोंका त्याग कर,परम शांति प्राप्त कर लेना भव्यजीवका मुख्य कर्तव्य है, और यही आत्माके परम कल्याणका साधन हैं । प्रश्न- इन्द्रादिसौख्यमेवापि कि हेय मन्यते गुरो? अर्थ- हे गुरो ! अब कृणकर यह बतलाइए कि इंद्र आदिके सुखभी इस संसारमें हेय वा त्याग करने योग्य क्यों माने जाते हैं ? उ.- शान्त्या बिहीनं सततं सुदृष्टिश्चिन्तामणेः कल्पतरोः प्रजानम्। सुकामधेनोश्च सुभोगभूम्याः नरेन्द्रदेवेन्द्रफणीन्द्रजातम् ।।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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