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( शान्तिसुधासिन्धु )
षटखण्ड राज्य विभवादिविधातकानि स्वात्मप्रदेशगमनप्रतिबन्धकानि । बन्धाति शत्रुसमदुःखकराणि नित्यं, स्निग्धो घटोहि विपुलानि रजःकणानि ।। १३८ ॥
अर्थ - जिस प्रकार चिकने घडेपर बहुतसे धूलिक कण आकर जम जाते हैं, उसी प्रकार राग वा द्वेषको धारण करनेवाला अज्ञानी पुरुष बहुतसे कर्मोंका बंध करता रहता है । ये कर्म अत्यंत भयंकर है, संतापोंको बढानेवाले हैं, अत्यंत निन्द्य हैं, आत्मासे उत्पन्न होनेवाले अनन्त सुख और शांतिको नाश करनेवाले हैं, स्वर्ग वा मोक्षको रोकने के लिये सदा तत्पर रहते हैं इंद्र, चक्रवर्ती आदिकी विभूतिको नाश करनेवाले हैं, अपने ही आत्माको अपने ही आत्माके प्रदेशों में लीन होनेमें रुकावट डालनेवाले हैं, और शत्रुके समान सदा दुःख देनेवाले हैं । ऐसे इन कर्मो को रागी पुरुषही ही बांधता है ।
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भावार्थ - अग्नि में पके हुए मिट्टीके घडेपर धूलि कभी जमती नहीं । चाहे जितनी धूलि उसपर डाली जाय तथापि वह जमती नहीं, यदी उसी घडेपर तेल या घी लगा दिया जाए और उसको चिकना कर दिया जाय, तो फिर रखखे रखखे ही उस घडेपर धूलि जम जाती है । बिना चिकनाईके धूलि जम नहीं सकती। इसी प्रकार जो आत्मा राग-द्वेष धारण करता है । विना राग-द्वेषके कर्मोंका बंध नहीं हो सकता, इसलिए जो पुरुष कर्मोंको नष्टकर मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, उसको सबसे पहले राग-द्वेषका त्याग कर देना चाहिए | राग द्वेषका त्याग कर देनेसे नवीन कर्मोका बंध नहीं होता तथा पिछले कर्मोकी निर्जरा होनेसे, किसी न किसी दिन वे समस्त कर्म अवश्य नष्ट हो जाते हैं ।
प्रश्न- बध्यते कर्मणा यो न स जीवः कीदृशः प्रभो ?
अर्थ हे स्वामिन्! अब कृपाकर यह बतलाइये कि कैसा जीव कर्मोंका बंध नहीं करता ?
उत्तर - स्थूलाविसूक्ष्मतनुधारणकारणेषु शुष्केषु तापजनकेषु सुशीसकेषु ।