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( शान्तिसुधासिन्धु)
कर सकता है, और उन विभाव परिणामोंको रोक सकता है। विभाव परिणामोंके रुक जानेसे फिर कोरबंध नहीं होता और फर्नाका बंध न होनेसे तथा पिछले कर्म नष्ट हो जानेसे अपनेआप मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है, इसलिये भव्य जीवोंको अपने विभाव परिणामोंको स्वभावरूपमें बदलनेका प्रयत्न करते रहना चाहिये, क्योंकि मोक्ष अवस्थामें स्वभाव परिणाम होते हैं, तथा इस आत्माके साथ जो वैभाविकशक्ति है, वहीं वैभाविकशक्ति बदलकर स्वाभाविकरूप हो जाती है।
इसमें इतना और समझ लेना चाहिए कि कर्मों के बंध होने में मुख्य कारण विभाव-परिणाम है और परपदार्थ सब निमित्त कारण है। जसे कोई मनष्य अपने किसी शत्रको देखकर क्रोध करने लगता है, और उस क्रोधके निमित्तसे अशुभ कर्मोका बंध करता है । उस अशुभ कर्मके बंधमें श्रोध ही मुख्य कारण है । बह शत्रु तो निमित्तकारण है । शत्रुको देखकर क्रोध करना और न करना दोनों अपने आधीन हैं । राजा श्रेणिकने एक मुनिको दुःख दिया था, परंतु रानीके समझानेपर जब उनका उपसर्ग दूर किया, और राजा श्रेणिकने भी उन मुनिमहाराजको नमस्कार किया तो मुनिराजने राजा श्रेणिकको धर्मवृद्धिरूप आशीर्वाद ही दिया था। तथा धर्मोपदेश देकर उसका कल्याण ही किया था। इससे सिद्ध होता है कि शत्रुको देखकर क्रोध करना अथवा उस दुःखको अपने कर्मीका फल मानकर शांत रहना, दोनों अपने आधीन हैं, इसलिए कर्मबधमें विभाव-परिणाम ही कारण हैं, परपदार्थ केवल निमित्तमात्र हैं, इसलिए मोक्षकी इच्छा करनेवालोंको अपने विभाव-परिणामोंका त्याग कर देना चाहिए।
प्रश्न- कौ कर्म कीदशो जीवो वन्धाति वद मे प्रभो ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बललाइए कि इस संसारमें कैसा जीव कर्मोका बंध करता है ? उत्तर - राग्येध कर्मनिचयानि भयंकराणि,
संसारतापपरिवृद्धिकराणि मूर्खः । निद्यानि चात्मसुख शांतिविनाशकानि, स्वर्मोक्षमार्गपरिरोधनतस्पराणि ॥ १३७ ॥