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________________ (शान्तिसुधासिन्धु ) अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइए कि शरीरादिक परपदार्थ आत्माको कर्मबंधन में डालनेवाले हैं बा नहीं ? उत्तर - न वर्गो वर्गणाकर्म न नोकर्म न जन्तवः । प्रियाप्रियपदार्था न न बन्धुर्न च भाक्तिकः ॥ १३२ ॥ न निर्जन्तुप्रदेशानिदर्न स जन्तुर्वपुश्च को । किंतु स्वात्मविभावाश्च भवंति स्वात्मबंधकाः ।। १३४॥ केवलं परवस्तु स्यानिमित्तमात्रकं सदा।। ज्ञात्वेत्यात्मविभावानां शुद्धिः कार्या विशेषतः॥१३५॥ यतः स्यात्स्वात्मराज्यं च समापं सर्ववस्तुतः। षड्रिपुजयिनो राजो यथा विश्वं समीपगम् ॥ १३६ ।। अर्थ- इस संसारमें इस जीवको कर्मबंधन में डालनेवाले न तो कर्मपरमाणु हैं, न कर्मपरमाणुओंका समूह है, न कर्म हैं, न नोकर्म हैं, न अन्य जीव है, न प्रिय वा अप्रिय पदार्थ है, न भाई-बंधु हैं, न भक्ति करनेवाले भक्तजन हैं, न निर्जीव प्रदेश हैं, न जीव हैं, और न यह शरीर है. किंतु अपने आत्माके विभाव-परिणाम ही अपने आत्माको बंधन में डालनेवाले हैं। आत्माको बंधन में डालनेके लिये परपदार्थ तो केवल निमित्तमात्र होते हैं। यही समझकर आत्माके विभाव-परिणामोंको विशेष रीतिसे शुद्ध कर लेना चाहिये । जिस प्रकार क्रोधादिक अंतरंग छहों शत्रुओंको जीतनेवाले राजाके समीप समस्त संसार आ जाता है । उसी प्रकार विभाव परिणामोंको जीत लेनेसे समस्त पदार्थोंसे अपने आत्माकी शुद्धतारूप स्वराज्य प्राप्त हो जाता है। भावार्थ-- इस जीवके साथ विभाव-परिणाम अनादिकालसे लगे हुए हैं। उन्हीं विभाव-परिणामोंसे कर्मोका बंध होता हैं तथा वे विभावपरिणाम कर्मोके उदयसे होते हैं, इस प्रकार कर्मों के उदयसे विभाव-परिणाम और विभाव-परिणामोंसे कर्मका संबंध इस जीवके साथ लगा हुआ है । वे विभाव-परिणाम कभी तीव्ररूप होते है और कभी मंदरूप होते हैं। जब मंदरूप होते हैं तब यह जीव अपने आत्माको स्वरूप भी चितवन
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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