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( शान्ति सुधासिन्धु )
लब्ध्वा धनं झटिति यो विकृति न याति । लिप्तो व तत्र विषयां परित्यमानः ॥t ताभिर्हतो न सततं ललनातोपि । जातो न तस्य वशगः समाश्रितोपि ॥ ३८५ ।। ग्रस्तच नैव भुवने भुवनस्थितोपि । चारित्रमोहवशगोपि ततोतिदूरः ॥ धर्मार्थ कार्यनिरतोपि निजे निमग्नः । पूर्वोक्तकार्यकुशलो विरलोस्ति वीरः ॥ ३८६ ॥
अर्थ- जो पुरुष धन पा करके भी अपने हृदयमें शीघ्र ही विकारभाव धारण नहीं कर लेता है, जो विषयों का सेवन करता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता, निरन्तर स्त्रियोंके साथ क्रीडा करता हुआ भी उनसे ताडित नहीं होता, अर्थात् उनके वशीभूत नहीं होता, जो समयके अनुसार कार्य करता हुआ भी उसके आधीन नहीं होता, संसार में रहता हुआ भी जो संसारमें लीन नहीं होता, जो चारित्रमोहनीय कर्मके वशीभूत होकरभी उससे अत्यंत दूर रहता है, और जो धर्मको वृद्धिके लिए अनेक कार्य करता हुआ भी सदाकाल अपने आत्मामें लीन रहता है । इसप्रकार इन सब कमको करनेवाला पुरुष सबसे अधिक कुशल कहलाता है । ऐसा शूर-वीर कुशल पुरुष इस संसार में विरलाही होता है ।
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उत्तर
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भावार्थ प्रायः धन या करके सब पुरुष मदोन्मत्त हो जाते हैं । वास्तव में देखा जाय तो यह धनही समस्त अनर्थोकी जड़ है । प्रायः धनी पुरुषही सब प्रकारके अन्याय और अनर्थ करते हुए देखे जाते हैं, तथा अनेक प्रकारके अभक्ष्य भक्षण करते हुए देखे जाते हैं, इसलिए ऐसे धनको पा करकेभी जो पुरुष अपने हृदयमें किसी प्रकारके विकार धारण नहीं करता, उसी मनुष्यको अत्यंत कुशल कहना चाहिए, और इन्द्रियोंके विषयों को सेवन करनेवाले पुरुष उन विषयोंमें लीन हो जाते हैं और फिर अपने आत्माका स्वरूप सर्वथा भूल जाते है, इसलिए इंद्रियोंके विषयोंमें लीन न होनाही कुशलता है, जो पुरुष सदाकाल स्त्रियों में क्रीडा करते रहते हैं, वे पुरुष प्रायः उन्ही के वशीभूत हो जाते हैं। स्त्रियोंमें वशीभूत होकर फिर वे अनेक प्रकारके अनर्थ
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