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( शान्तिसुधासिन्धु)
राखोंको देनेवाले धर्मको धारण किया, उस अनानी मनप्यने मनष्यजन्मरूपी रत्नको पा करकेभी इस संसाररूपी महासागरके अगाध जलमें फेक दिया, इसलिए वह अभागी मनुष्य प्रत्यक्ष नारकीके समान जान पडता है।
भावार्थ- इस जीवके साथ जब-तक यह प्रबल मोह लगा रहता है, तब-तक उन मोहले उदयसेही सदाकाल मान वा अपमानका ध्यान रक्षा करता है तथा उसी मोहके कारण अपने लाभ और प्रतिष्ठा आदिका ध्यान रक्खा करता है । अमुक मनुष्य मझसे ऊंचा न हो जाय, अमुक मनुष्यको मझसे अधिक लाभ न हो जाय, अमुक मनुष्यकी प्रतिष्ठा क्यों अधिक हो गई. मेरी क्यों नहीं हुई, इस प्रकारके मानअपमानका ध्यान, वा लाभ, बा, प्रतिष्ठाका ध्यान, तीव्र मोहक के उदयसे होता है, यदि मोहकर्मका नाश होकर सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाय, तो यह मनुष्य आत्माके यथार्थ स्वरूपको जान लेने के कारण मोहके समस्त विकारोंको आत्मासे भिन्न समझने लगता है, और फिर उन समस्त विकागेको त्यागकर अत्यंत शुद्ध बनानेका प्रयत्न करता है । उस समय वह मनुष्यपर्यायके जितने कर्तव्य है. उन सबका पालन करता है। काम, श्रोध, मोह, प्रमाद आदि सत्र विकारोंका त्याग कर, अध्यात्म विद्याके अध्ययन करने में लग जाता है, और अनंत सुखको देनेवाले आत्माके स्वभावरूप धर्मको धारण कर लेता है । यही मनुष्य जन्मका सर्वोत्तम कर्तव्य है, परंतु जो मनुष्य ऐसा नहीं करता वह अज्ञानी कहलाता है, और रत्नके समान इस बहुमूल्य बड़ी कठिनतामे प्राप्त होने योग्य मनाय जन्मको भोगोपभोगोंके द्वारा संसार सागर में डुबो देता है। ऐसा मनुष्य कभीभी योग्य मनुष्य नहीं कहलाता है, किंतु भाग्यहीन और अज्ञानी कहलाता है। तथा नारकीके समान महादुःखी होता है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको मनुष्यपर्याय पा करके सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेना चाहिए, और फिर मोहादिक समस्त विकारोंका त्याग कर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए । यही मनुष्पपर्यायका कर्तव्य है।
प्रश्न- कः कुशलोस्ति जीवः को वद मे सिद्धेचे प्रभो ?
अर्थ- हे भगवान् ! अब मेरे आत्माकी सिद्धि के लिए कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसारमें सबसे अधिक कुशल मनुष्य कौन है?