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________________ ( शान्तिसुधा सिन्धु ) ही इस जीवके काम कोधादिक विकार उत्पन्न होते हैं। जब इस जीवके समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं, तव यह आत्मा अत्यंत शुद्ध हो जाता है। इस आत्माका कर्मरहित हो जानाही मोक्ष कहलाता है । इसलिए आचार्य महाराज कहते हैं कि जो पुरुष अपने आत्माको अत्यंत शुद्ध करनेके लिए अर्थात् मोक्ष प्राप्त करनेके लिए उसके साधनभूत धर्मको धारण करता है, व्रत-उपवास करता है. तपश्चरण करता है, बारह भावनाओंका चितवन करता है, उत्तम क्षमा आदि दश धर्मोका पालन करता है, वा रत्नत्रयको पूर्ण करनेका प्रयत्न करता है उसको धर्मात्मा कहते हैं । जो पुरुष इससे विपरीत चलता है, केवल अपनी प्रसिद्धि के लिए ध्यान वा उपवास करता है, वा द्रव्य उपार्जन करनेके लिए वेष बनाकर ध्यान -उपवास करता है उसको नीच, ठग और अधर्मात्मा समझना चाहिए। ऐसा पुरुष मायाचारी होनेके कारण अनंतकालतक निगोदके दुःख भोगता रहता है। इसलिए किसी भी भव्यजीवको धार्मिक कार्यों में कभी भी मायाचारी नहीं करनी चाहिए। धर्मका धारण तो आत्माकी शुद्धताके लिएही है । अथवा जो आत्माकी शुद्धताके लिए : किया जाता है उसी को धर्म कहते हैं इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं हूँ । २६४ प्रश्न नरो भूत्वा नृणां कुत्यं न करोति स कीदृश: ? अर्थ - भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि मनुष्य होकर भी जो मनुष्यों का कर्तव्यपालन नहीं करता वह कैसा मनुष्य है । उ.- मानापमानो निजलाभपूजात्यक्तो न मोहो मदनः प्रमादः । ध्याता न देवो पठिता न विद्या कृतो न धर्मोऽखिलसौख्यदाता तेन प्रमूढेन नृजम्मरत्नं प्रक्षिप्यते सिंधुजले झपारे ॥ ततो नरो वापि स नारकोव प्रत्यक्षमेव प्रतिभात्यभागी । ३८४ अर्थ - जिस मनुष्यने मनुष्यपर्याय पाकरभी मान-अपमानके बिचारका त्याग नहीं किया, अपना लाभ और अपनी प्रतिष्ठाके विचा रका त्याग नहीं किया, जिसने न तो मोहक त्याग किया, न कामसेव नका त्याग किया, न प्रसादका त्याग किया, न भगवान् अरहंत देवका यान किया, न अध्यात्म विद्याका पठन-पाठन किया और न समस्त
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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