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( शान्तिसुधासिन्धु )
लेता है । इससे सिद्ध होता है कि मिथ्यात्व कर्मके उदयसेही इस जीवकी बुद्धि धर्मधारण करनेकी ओर नहीं झकती। मिथ्यात्व कर्मको नष्ट कर देपर सवस्यही धर्मकार्य में लग जाती है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको सबसे पहले अपने मिथ्यात्वका त्याग करना चाहिए, और फिर सम्यग्दर्शन प्राप्त कर, मोह तथा कषायोंका सर्वथा त्याग कर, तथा समस्त परिग्रहोंका त्याग कर, ध्यान तपश्चरणके द्वारा समस्त कर्मोको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए । यही मनष्य जीवनका यथार्थ
प्रश्न – धर्मिणोऽधर्मिणाश्चिन्हें विद्यते कीदृशं वद ?
अर्थ - हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि धर्मात्माका चिन्ह क्या है और अधार्मिक पुरुषका चिन्ह क्या है ? उ.- यः स्यात्मशुद्धय॑ च करोति धर्म ब्रतोपवासं च जपंतपश्च
स एवं धर्मो भुवने यथार्थोऽभिमानशून्यो गुणदोषवेदी ।। ख्यात्याविहेतोश्च करोति धर्म ध्यानोपवासं खलु यश्च वानम् स एव नीचो जनवंचकः स्यात् पापी विधर्मो न च शंकनीयः
अर्थ- जो पुरुष अपने आत्माको शुद्ध करनेके लिए धर्मको धारण करता है, वा व्रत-उपवास करता है अथवा जप वा तप करता है, वही पुरुष इस संसारमें अभिमानरहित और गुणदोषोंका जाननेवाला यथार्थ धर्मात्मा कहलाता है । परंतु जो पुरुष अपनी प्रसिद्धिके लिए वा द्रव्य उपार्जन करने के लिए धर्म धारण करता है, वा ध्यान करता है, उपवास करता है, अथवा दान देता है उस पुरुषको नीच लोगोंको गनेवाला पापी और अधर्मात्मा समझना चाहिए । इसमें किसी प्रकारकी शंका नहीं है।
भावार्थ - इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए जीवको, जो सबसे उत्तम मोक्ष स्थानमें ले जाकर विराजमान कर, देता है उसको धर्म कहते है। धर्मकी इस व्याख्यासे यह बात सिद्ध हो जाती है कि मोक्ष प्राप्त करनेके जितने साधन हैं उन सबको धर्म कहते हैं, तथा उस धर्मको अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने के साधनोंको जो धारण करता है उसको धर्मात्मा कहते हैं। मोक्षकी प्राप्ति आठों कर्मोका नाश करनेसे होती है, तथा कर्मोके उदयमे