SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( शान्तिसुधासिन्) उ.- धनार्जने बन्धुजने कलत्रे भोगोपभोगे विषवद् व्ययादे । यथा मतिः कार्यकरी च वक्षा मिथ्याविरोधे भवतीति शक्ता। तथा स्वधर्मे स्वपरोपकारे मिथ्यात्वमोहादिविनाशने हि । स्यात्तहि चानन्दपदप्रदात्री स्वर्मोक्षलक्ष्मीः सुखदा स्वदासी । अर्थ- इस मनुष्यकी बुद्धि जिस प्रकार धन संग्रह करनेमें चतुर होती है, भाई-बंधुओंके मोहमें चतुर होती है, वा स्त्रीके मोहमें चतुर होती है, अथवा विषके समान महादुःख देनेवाले भोगोपभोगोंके सेवन करने में चतुर होती है, वा इन समस्त कार्योंके संपादन करनमें चतुर होती है, और एक दूसरेके साथ विरोध करनेमें समर्थ होती हैं, उसी प्रकार यदि यह हि माते आपको प्रहारने में लग जाण अथवा अपने आत्माके कल्याण करने में, वा अन्य जीवोंके कल्याण करने में लग जाय, अथवा मिध्यान मोह आदि आत्माके विकारोंके नाश करने में लग जाय तो फिर सच्चिदानंद पदको देनेवाली तथा अनंत सुखको देनेवाली स्वर्ग और मोक्षकी लक्ष्मी अवश्यही अपनी दासी बन जाती है। भावार्थ- यह जीव इस संसारमें अनादि कालसे परिभ्रमण करता चला आ रहा है। अनादि कालमेही भोगादिभोगोंमें लगा हुआ है, अनादि कालसेंही स्त्री, पुत्र वा परिग्रहके संग्रहमें लगा हुआ है, और अनादि कालसेही परस्पर वैर-विरोधमें लगा हुआ है । अतएव उसे अनादि कालसे इन सब कर्माका अभ्यास हो रहा है । यह सब मिथ्यात्वकर्मके उदयका कार्य है । मिथ्यात्वकर्म के उदयसे इस जीवकी बुद्धि मिथ्या हो जाती है, और इसलिए वह संसारके भोगोंमेंही लगी रहती है जब यह जीव किसी वीतराग निर्ग्रय गरुके सदुपदेशसे अपने मोह और मिथ्यात्वको मंद कर देता है, और आत्माके यथार्थ स्वरूपको समझने लगता है, तब यह जीव मोह और मिथ्यालको नष्ट करने का प्रयत्न करता है । काललब्धिके अनुसार जब यह जीव अपने मोह और मिथ्यात्वको नष्ट कर देता है, तब आत्माके स्वरूपको प्रगट कर देनेवाला सम्यक्दर्शन प्रगट हो जाता है । सम्यग्दर्शन प्रगट होते ही स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है। स्वपरभेदविज्ञानसे यह जीव अपने आश्माके यथार्थ स्वरूपको जानकर उसको प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है। उसके लिए वह समस्त विकारोंका त्याग कर देता है, और ध्यान तपश्चरणके द्वारा मोक्ष प्राप्त कर
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy