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________________ (शान्तिसुधासिन्धु ) गुरु भक्ति करते हुए भी जिसको आत्मज्ञान प्रगट न हो, उसकी वह भक्ति सफल नहीं कही जा सकती, इसलिए देव - गुरु भक्ति करनाही आत्मज्ञान प्रगट करना मनुष्यका कर्तव्य है, तथा उस आत्मज्ञानकी जोभा समता और शांतिसे होती है। किसीसे मोहन करना, और सुख-दुःख वा हानि-लाभ, सबको समान मानना वा जीवन-मरणको समान मानना समता है, तथा क्रोधादि कषायोंका त्याग कर देना और आत्माको अपने आत्मा में लीन रखना शांति है। यह समता और शांति आत्मज्ञानका फल है । आत्मज्ञान उसीको समझना चाहिए, जिसके आत्मामें समता और शांति हो । यही समता और शांति मोक्षका कारण है, इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको आत्मज्ञान प्राप्त कर लेना उसका कर्तव्य है । प्रश्न- चिन्ता स्वरूपं वद मेत्र देव ? अर्थ-हे भगवान् ! अब कृपाकर मेरे लिए चिन्ताका स्वरूप कहिए । उ. धनस्य चिता प्रथम हि पश्चाद् गृहस्य नार्थाश्च सुसेवकस्य । तेषां च लाभोपि भवेत्सुपुण्यात् तथाप्यलाभात्तनयस्य चिन्ता । भवेत्सुपुण्याद्व र पुत्रलाभस्तथापि पापाद्धि सरोगदेहः । नीरोग होपि भवेत्सुपुण्यात् कन्याद्यलाभाद्धि पुनश्च चिन्ता । तासां च लाभोपि भवेत्सुपुण्याद् राज्याधलाभाद्धि पुनश्च चिन्ता तस्यापि लाभश्च भवेत्सुपुण्यात् तारुण्यहानेश्च पुनह चिन्ता । न स्याद्धि चिन्तान्त इतीह लोके तत्त्यागतो ह्येव भवेत्तदन्तः । ज्ञात्वेति तस्यागविधिविधेयो यतो भवेत्स्वात्मसुखं स्वराज्यम् । १६८ अर्थ- देखो इस संसार में इस गृहस्थको सबसे पहले धनकी चिन्ता होती है, यदि पुण्योदयसे धन मिल जाता है, तो फिर घरकी चिन्ता होती है । यदि पुण्योदयसे घर भी बन जाय तो फिर स्त्रीके प्राप्त होनेकी चिन्ता होती है । यदि पुण्योदयसे स्त्रीकी भी प्राप्ति हो जाय, तो फिर सेवक मिलने की चिन्ता होती है। यदि विशेष पुण्यके उदयसे इन सबकी प्राप्ति हो जाय, तो फिर पुत्र न होनेकी चिन्ता बनी रहती है | यदि कदाचित् पुण्यके उदयसे पुत्र भी प्राप्त हो जाय और उसका शरीर नीरोग न हो तो उसके रोगको दूर करनेके लिए दिन रात चिन्ता बनी रहती है । यदि पुण्योदयसे उस पुत्रका शरीर
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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