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( शान्तिसुधासिन्धु )
भी नीरोग हो जाय, तो फिर कन्या आदि के न होने की चिन्ता बनी रहती है । यदि शुभकर्मके उदयसे कन्याएं भी हो जाय, तो राज्यादिके प्राप्त न होने की होती है। यति का पुण्य उदयसे राज्यकी प्राप्ति भी हो जाती है, तो फिर अपने तारुण्यके नष्ट होने की महाचिन्ता होती है। इस प्रकार मसारमें चिन्ताका कभी अन्त नहीं होता। यदि इस संसारमें चिन्ताका अन्त होता है, तो परिग्रहका त्याग कर देनेसेही होता है । इसलिए भव्यजीवोंको समस्त परिग्रहोका त्याग कर, चिन्ताओंका अंत कर देना चाहिए, जिससे कि आत्माका अनंतसुख और आत्माका शुद्धतारूप स्वराज्य प्राप्त हो जाय।
भावार्थ- इस संसारमें अनन्त पदार्थ भरे हुए है, और प्रत्येक जीवके साथ अनन्तानन्त पदार्थों का मोह लगा हुआ है, तथा जीवोंकी रांच्या अनन्ताजन्त है । यदि सब जीवोंका मोह इकठ्ठा किया जाय, और प्रत्येक जीवको मोहके लिए अलग-अलग पदार्थको बांट दिया जाय तो एक-एक जीवको मोहके भागमें प्रत्येक पदार्थका एक भागभी नहीं पडता है। फिर भला अनन्तानन्त जीवोंको मोहमें उत्पन्न हुई इच्छाओंकी पूति कैसे हो सकती है? इस संसारमें किसीभी जीव की इच्छाए कभी पूर्ण नहीं हो सकती, तथा इच्छाओंका पूर्ण न होनाही दुःख है। इस संसारमें सबसे अधिक विभूति चक्रवर्तीकी होती है, परन्तु यदि उसकीभी इच्छा न मिटे, तो उसेभी महा दुःखी समझाना चाहिए । सुभौम चक्रवर्तीने छहों खंड जीत लिए थे, परन्तु उसके किसी पहले भवके शत्रदेबने एक बहुत मीठा फल लाकर दिया, और चक्रवर्तीक पूछनेपर उसने किसी द्वीपका बह फल बतलाया। इस चक्रवर्तीकी तृष्णा और इच्छा बहुत अधिक थी, इसलिए वह फल लेनेकी इच्छासे और उस देशको जीतने की इच्छासे, उसके साथ चल पड़ा । जब वह बीच समुद्र में पहुंचा, तो देवने उस जहाजको इबानेका प्रयत्न किया, परन्तु चक्रवर्ती उस समय णमोकार मंत्रका स्मरण करने लगा, इसलिए वह जहाज डुब नहीं सका । जब देवनेभी यह बात जान ली, तब चक्रवर्ती में कहा कि-महाराज ! यदि आप णमोकार मंत्र लिखकर उमको पांवके अंगूठेसे मिटायेंगे, तो उस द्वीपमें पहुँच सकेंगे, नहीं तो नहीं । चक्रवर्तीको उस फलको खानेकी और उस द्वीपको जीतने की तीव्र इच्छा थी, इसलिए