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। शान्तिसुधासिन्धु )
आत्माके आधीन रहनेवाले पुरुषको यह समस्त मंसार तृणके समान मालुम पड़ता है, और उसको मांसारिक समस्त कार्य निष्फल और कभी न देखने योग्य मालूम होते हैं। कदाचित् वह मनुष्य किसी कार्यके निमिनको परमोंने वर्ष भी रहे सावपि उसकी रुचि उन मनुष्योंके संसर्गमें कभी दिखाई नहीं पड़ती।
भावार्थ- जो पुरुष अपने आत्मजन्य अनंत सुखरूप रसका आस्वादन करता रहता है, उसको फिर सांसारिक कोई भी कार्य अच्छा नहीं लगता । फिर उसे न तो इंद्रियोंके विषय अच्छे लगते हैं, न मनुष्योंका संगर्ग अच्छा लगता है, न कुटुंबी लोग अच्छे लगते हैं, और न बस्त्र आभूषण आदि अच्छे लगते हैं, फिर तो बह सदाकाल आत्मामें ही लीन रहनेका प्रयत्न करता है । इसके लिए वह एकांत स्थानम रहता है, मुनि आवासमें रहता हैं, ध्यान-अध्ययनमें लगा रहता है, तपश्चरण करने में लगा रहता है, बारह-भावनाओंके चितवन करने में लगा रहता है, दश-धर्मोके चितवनमें लगा रहता है, और गुप्तिसमितियोंके पालन करने में लगा रहता है । इस प्रकार आत्मामें लीन रहने के कारण उसका सब मोह छूट जाता है, वह समस्त परिग्रहोंका त्याग कर देता है, और सदाकाल मोक्ष प्राप्त करनेके उपाय में लगा रहता है। ऐसा पुरुष भीत्रही मोक्ष प्राप्त कर, अनत सुख प्राप्त कर
प्रश्न- धर्मस्य शरणं याति कि कि स लभते वद ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिए कि जो मनुष्य सदाकाल धर्मको ही शरण मानता है, धर्मकी ही शरणमें रहता है, उसको किस-किस पदार्थकी प्राप्ति होती है ? उत्तर - अत्यंतदुष्टं प्रबलप्रमोहं
त्यक्त्वा प्रमावं भवबंधबीजम् । घ्याध्याविहर्तुः सुखशान्तिदातु यः कोपि धीमान् स्वगृहप्रणेतुः ॥ २१० ॥
/धर्मस्य भक्त्या शरणं प्रयाति 3 स एव लोके सद्सद्विचारी।