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( शान्तिसुधासिन्धु )
सुतत्त्ववेदी खलु विश्वनेता स्वधर्मधारी परधर्महारी ॥ २११ ।।।
अर्थ- जो बुद्धिमान् पुरुष अत्यंत दुष्ट ऐसे प्रबल मोहका त्याग कर देता है, और संसारके कारणभूत प्रमादका सर्थथा त्याग कर देता है, तथा समस्त व्याधियोंको दूर करनेवाले, सुख और शान्तिको देनेवाले और इस आत्माके मोक्षरूप गयो बना काले धमकी नावितपूर्वक शरण लेता है, वहीं पुरुष इस मंसारमै सत् और असतका विचार करनेवाला कहलाता है, आत्मा आदि श्रेष्ठ तत्त्वोंका जानकर कहलाता है, समस्त संसारका नेता कहलाता है, अपने आत्माके स्वभावरूप धर्मको धारण करनेवाला कहलाता है, और परधर्म अर्थात विभावभावांका हरण करनेवाला कहलाता है।
भावार्थ- इस संसारमें ज्ञान, वैराग्य आदि आत्माके गणोंको ढक देनेवाला तीव्र कर्मोका बंधन करनेवाला मोह है । जो पुरुष इस बातको जानता है, वह इस मोहका त्याग कर, आत्माके गुण प्राप्त कर सकता है । परंतु प्रमाद इस आत्माको ऐसा नहीं करने देता । वह प्रमाद इस आत्माको अपना कल्याण करने से रोक देता है । इसलिए जिस प्रकार मोह आत्माके गुणोंको प्रगट नहीं होने देता, उसी प्रकार प्रमाद भी आत्माके गुणोंको प्रगट नहीं होने देता । इससे यह सिद्ध हो जाता है, कि आश्माके गुण प्रगट होने में मोह, प्रमाद ये दो ही मुख्य कारण हैं, अतएव जो भव्यजीव सबसे पहले मोह और प्रमादका त्याग कर देता है, और आत्माके स्वभावरूप धर्मको धारण कर लेता है, उस पुरुषको आत्म-तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है, और आत्म-तत्त्वकी प्राप्ति होनेसे मोक्षरूप सुखकी प्राप्ति हो जाती है। इसी प्रकार धर्म धारण करनेसे भले-बुरेका विचार उत्पन्न हो जाता है 1 भले बुरेका विचार उत्पन्न होनेसे यह आत्मा आत्माको दुःख पहचानेवाले इन्द्रियोंके विषयोंका त्याग कर देता है, कषायोंका त्याग कर देता है, और ध्यान वा तपश्चरणके द्वारा समस्त कर्मोको नष्ट कर मोक्ष सुख प्राप्त कर लेता है, इस प्रकार वह धर्मको शरण माननेसे संसारभरका नेता सबसे द्वारा पूज्य और मुनियों तकके लिए ध्यान करने योग्य ध्येय बन जाता है । अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्य इन अनन्त चतुष्टयरूप आत्माके स्वभावरूप धर्मको धारण कर लेता है, और कषायादिक विभाव-भावोंको सर्वथा